नारी पर हिंदी में निबंध

नारी पर हिंदी में निबंध | Essay on Woman in Hindi

नारी पर हिंदी में निबंध ( Essay on Woman in Hindi)

नारी की परिभाषा (Definition of Woman)

लिंग के विचार से मनुष्य जाति का वह वर्ग जो गर्भधारण कर प्राणियों को जन्म देती हैं, नारी है।युवती तथा वयस्क स्त्रियों की सामूहिक संज्ञा, नारी है । धार्मिक क्षेत्र में साधकों की परिभाषा में प्रकृति और माया, नारी है।

नारी पर हिंदी में निबंध

महादेवी वर्मा के शब्दों में, “नारी केवल मासपिंड की संज्ञा नहीं है। आदिमकाल से आज तक विकास-पथ पर पुरुष का साथ देकर, उसकी यात्रा को सरल बनाकर, उसके अभिशापों को स्वयं झेलकर और अपने वरदानों से जीवन में अक्षय शक्ति भरकर, मानवी ने जिस व्यक्तित्व, चेतना और हृदय का विकास किया है, उसी का पर्याय “नारी” है।

नारी एक रूप अनेक (Woman One Many Forms)

मन का विदारण करने के कारण नारी को “दारा” कहते हैं। शरीर आहत कर देने के कारण “वनिता” है । इसके अंगों के समान किसी अन्य के श्रेष्ठ अंग नहीं, अतः वह “अंगना” है।पुरुष को लालायित कर देने के कारण “ललना” है ।

प्रिय के दैव को छीन लेती है अथवा दया भाव रखती है, इसलिए ‘दयिता‘ है। तीन प्रकार से शत्रु होने के कारण ‘तीमयी’ ‘कहलाती है। उपकार और सुख पहुँचाने के कारण ‘ धन्या‘ है।

पति ही मानो पुत्र रूप में उससे जन्म लेता है, इस कारण ‘ जाया‘ है। (जायते पति: पुत्ररूपेण अनया इति जाया) नर उसके प्रति रति (आसक्ति से) से तृप्त नहीं होता, इसलिए उसे “नारी” कहते हैं।

नारी पुरुष की अंकाश्रिता है, जैसे वृक्ष के सहारे कोई बेल बढ़ रही हो। वह ‘छाया‘ है, ‘अनुगामिनी” है, ‘अवलम्बिता’ है। उसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व जैसे है ही नहीं। वह पुरुष की ‘सहयात्रिणी‘, ‘सहचरी‘ ही नहीं, ‘ अनुचरी” भी है।

जन्मदात्री होने के कारण नारी ‘ जननी ‘ है। जीवन-भर पति का साथ निभाने के कारण “सहयात्रिणी’ है। धर्म कार्यों में उसका साथ अनिवार्य होने के कारण ‘ सहधर्मिणी ‘ है। गृह को व्यवस्थापिका होने के कारण ‘ गृह लक्ष्मी’ विशेषण से विभूषित हुई । तन-मन से पति के प्रति पूर्णतः समर्पित होने से “पतिव्रता’ है।

स्वभाव से चंचल और श्रृंगार प्रिया

नारी स्वभाव से चंचल, चतुर, श्रृंगार प्रिया और भीरु होती है। मधुर बचनों से आकर्षित करती है, तीक्ष्ण बचनों से प्रहार करती है। लज्जा उसका आभूषण है। रोना उसका बल है। उसके अधरों में अमृत कुंड है, भोलापन और निश्छलता के कारण वह सहज मुग्ध हो जाती है, प्रेम के वशीभूत हो जाती है।

वह एक आँख से हँसतो है तो दूसरी से रोती है। नारी की करुणा अन्तर्जगत्‌ का उच्चतम विकास है, जिसके बल पर सदाचार ठहरे हुए हैं ।इसलिए नारी नैतिक आदर्शो की संरक्षिका है । उसके जीवन का संतोष ही स्वर्णश्री का प्रतीक है।

उसके वक्ष में पयस्विनी धार है तो हँसी में जीवन-निर्झर का संगीत है। दया,धैर्य और सहनशीलता नारी का स्वाभाविक धर्म है। उसका चित्त फूल जैसा कोमल है तो हृदय प्रेम का रंगमंच है । उसका प्रेम जल पर लिखा लेख है तो विश्वास रेत पर बने पद-चिह | दुर्भेध नारी हृदय में विश्व-प्रहेलिका का रहस्य बीज है।

नारी के अनुरक्त और विरक्त रूप

मूलतः नारी ही नारी की शत्रु होती है । तुलसी इसका समर्थन करते हुए कहते हैं, “मोह न नारि नारी के रूपा। ‘ ( मानस 7/6/) दूसरी ओर, पुरुष का आनन्द लेते हुए नारी कहती है–

भुज लता फँसा कर नर तरु से। झले-सी झोंके खाती हूँ।

प्रसाद ( कामायनी : लण्जा सर्ग )

तीसरी ओर कहीं निगाहें, कहीं इशारे नारी की प्रकृति है। भर्तृहरि इसका समर्थ करते हुए कहते हैं–

जल्पन्ति सार्द्धमन्येन पश्यन्यन्यं सविश्रमा:।
हृदये चिन्तयन्त्यन्यं प्रियः को नाम योषिताम्‌ ॥

श्रृंगार शतक 89

अर्थात्‌ यह ज्ञात नहीं हो पाता कि स्त्रियों का प्रियतम कौन है ? वे बातचीत तो किसी दूसरे से करती हैं, हावभाव से देखती हैं किसी और को और मन में सोचती हैं किसी और के बारे में।

अनुरक्त होकर नारी अमृत तुल्य हो जाती है और विरक्‍त होने पर विष बन जाती है। वह उत्साहित भी शीघ्र होती है तो उतने ही अधिक परिमाण में निराशावादिनी भी होती है।

प्रबोध चन्द्रोदय (/27) के अनुसार नारी,

“मोहित करती है, मदयुक्त बनाती है, उपहास और भर्त्सना भी करती है प्रमुदित करती है तो दुःख भी देती है। ससुरात्य उसका धार्मिक निकेतन है तो पीहर का पक्ष लेना नारी मन का नैसर्गिक न्याय है।’

प्रबोध चन्द्रोदय (1/27)

असमिया कवयित्री नलिनीबाला देवी के शब्दों में,

“तुम वही शरत्कालीन अंमृतमयी ज्योत्स्ना हो, जो विषाद की घन-घटाओं को दूर करती है। नर-हृदय के पुण्य स्पर्श मात्र से दरिद्र की कुटिया शांति-निकेतन बन जाती है।’

“तुम्हारे हाथ स्वार्थमयी पृथ्वी की कलुषकालिमा पोंछ देते हैं। प्रेम के दीप जलाकर कर्तव्य की तपस्या से तुम संसार-पथ में गरिमा का वितरण करती हो।’

“तुम आदि मानव की प्रिया हो। तुम सम्पूर्ण जगत्‌ की माता हो। संजीवनी अमृत पिलाकर तुम रूप देती हो तुम प्रेरणा की अनुभूति को मधुर मातृत्व में डालकर अपने प्राण न्यौछावर कर जाति को जीवित रखती हो।

नलिनीबाला

नारी ही मानवता की धुरी है। मानवीय मूल्यों की संवाहक है। मानवता की गरिमा और लावण्य भी है। धरती का पुण्य उसकी सुषमा में व्यक्त है तो सृष्टि का पुण्य नारी में है।

अतः प्रसाद जी कामना करते हैं–

नारी! तुम केवल श्रद्धा हो। विश्वास रजत नग पय तल में।
पीयूष स्रोत-सी बहा करो। जीवन के सुन्दर समतल में।

कामायनी : लज्जा सर्ग


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