रक्षाबंधन

रक्षाबंधन पर निबंध | Essay on RakshaBandhan In Hindi

रक्षाबंधन पर निबंध | Essay on RakshaBandhan In Hindi

रक्षा-बन्धन हमारा राष्ट्रव्यापी पारिवारिक पर्व है, ज्ञान की साधना का त्यौहार है । श्रवण नक्षत्र से युक्त श्रावण की पूर्णिमा को मनाया जाने के कारण यह पर्व ‘ श्रावणी ‘ नाम से भी प्रसिद्ध है। प्राचीन आश्रमों में स्वाध्याय के लिए, यज्ञ और ऋषियों के लिए तर्पण कर्म करने के कारण इसका ‘ऋषि-तर्पण‘, “उपाकर्म‘ नाम पड़ा। यज्ञ के उपरान्त रक्षा-सूत्र बाँधने की प्रथा के कारण ‘रक्षाबन्धन‘ लोक में प्रसिद्ध हुआ।

रक्षाबंधन

रक्षाबंधन का प्रारंभ कब हुआ

रक्षाबन्धन का प्रारम्भ कब और कैसे हुआ, इस सम्बन्ध में कोई निश्चित प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। एक किम्बदन्ती है कि एक बार देवताओं और दैत्यों का युद्ध शुरू हुआ। संघर्ष बढ़ता ही जा रहा था। देवता परेशान हो उठे । उनका पक्ष कमजोर होता जा रहा था। एक दिन इन्द्र की पत्नी शची ने अपने पति की विजय एवं मंगलकामना से प्रेरित होकर उनको रक्षा-सूत्र बाँधकर युद्ध में भेजा। जिसके प्रभाव से इन्द्र विजयी हुए। इसी दिन से राखी का महत्त्व स्वीकार किया गया और रक्षा-बन्धन की परम्परा प्रचलित हो गई।
(पर यह कोई यथार्थ प्रमाण नहीं है।)

श्रावण मास में ऋषिगण आश्रम में रहकर स्वाध्याय और यज्ञ करते थे। इसी मासिक यज्ञ की पूर्णाहुति होती थी श्रावण-पूर्णिमा को । इसमें ऋषियों के लिए तर्पण कर्म भी होता था, नया यज्ञोपवीत भी धारण किया जाता था । इसलिए इसका नाम श्रावणी उपाकर्म ‘ पड़ा। यज्ञ के अन्त में रक्षा-सूत्र बाँधने की प्रथा थी। इसलिए इसका नाम ‘ रक्षाबंधन‘ भी लोक में प्रसिद्ध हुआ । इसी प्रतिष्ठा को निबाहते हुए ब्राह्मण आज भी इस दिन अपने यजमानों को रक्षा-सूत्र बाँधते हैं।

मुस्लिम काल में रक्षाबंधन का महत्व

मुस्लिम काल में यही रक्षा-सूत्र ‘रक्षी’ अर्थात्‌ राखी बन गया। यह रक्षी ‘वीरन’अर्थात्‌ वीर के लिए थी। हिन्दू नारी स्वेच्छा से अपनी रक्षार्थ वीर भाई या बीर पुरुष को भाई मानकर राखी बाँधती थी । इसके मूल में रक्षा-कवच की भावना थी ।इसीलिए विजातीय को भी हिन्दू नारी ने अपनी रक्षार्थ राखी बाँधी। मेवाड़ की वीरांगना कर्मवती का हुमायूँ को ‘राखी’ भेजना इसका प्रमाण है । ( आज कुछ इतिहासविद्‌ इस बात को सत्य नहीं मानते।इसे अंग्रेजों व मुसलमानों की कुटिल चाल मानते हैं।)

काल की गति कुटिल है । वह अपने प्रबल प्रवाह में मान्यताओं, परम्पराओं, सिद्धान्तों और विश्वासों को बहा ले जाता है और छोड़ जाती है उनके अवशेष ! पूर्वकाल का श्रावणी यज्ञ एवं वेदों का पठन-पाठन मात्र नवीन यज्ञोपवीत धारण और हवन आहुति तक सीमित रह गया। वीर-बन्धु को रक्षी बाँधने की प्रथा विकृत होते-होते बहिन द्वारा भाई को राखी बाँधने और दक्षिणा प्राप्त करने तक ही सीमित हो गई हैI

रक्षाबंधन -भाई बहन के प्रेम का त्यौहार

बीसवीं सदी से रक्षा-वन्धनं-पर्व विशुद्ध रूप में बहिन द्वारा भाई की कलाई में राखी बाँधने का पर्व है। इसमें रक्षा की भावना लुप्त है। है तो मात्र एक कोख से उत्पन्न होने के नाते सतत स्नेह, प्रेम और प्यार की निर्बाध आकांक्षा । राखी है भाई की मंगल-कामना का सूत्र और बहिन के मंगल-अमंगल में साथ देने का आह्वान।

बहन विवाहित होकर अपना अलग घर-संसार बसाती है। पति, बच्चों, पारिवारिक दायित्वों और दुनियादारी में उलझ जाती है। भूल जाती है मातूकूल को, एक ही माँ के जाए भाई और सहोदरा बहिन को मिलने का अवसर नहीं निकाल पाती | विवशताएँ चाहते हुए भी उसके अन्तर्मन को कुण्ठित कर देती हैं।’ रक्षाबन्धन’ और ‘ भैया दूज’, ये दो पर्व दो सहोदरों–बहिन और भाई को मिलाने वाले दो पावन प्रसंग हैं । हिन्दू धर्म की ‘ मंगल-मिलन’ की विशेषता ने उसे अमरत्व का पान कराया है।

कच्चे धागों में बहनों का प्यार है।
देखो राखी का आया त्यौहार है ॥

रक्षाबन्धन बहिन के लिए अद्भुत, अमूल्य, अनन्त प्यार का पर्व है। महीनों पहले से वह इस पर्व को प्रतीक्षा करती है । पर्व समीप आते ही बाजार में घूम-घूमकर मनचाही राखी हा है । वस्त्राभूषणों को तैयार करती है । ‘ मामा-मिलन’ के लिए बच्चों को उकसाती । रक्षाबन्धन के दिन वह स्वयं प्रेरणा से घर-आँगन बुहारती है। लीप-पोप कर स्वच्छ करती है ।सेवियाँ, जवे, खीर बनाती है। बच्चे स्नान-ध्यान कर नव-वस्त्रों में अलंकृत होते हैं। परिवार में असीम आनन्द का स्रोत बहता है।भारतीय-संस्कृति भी विलक्षण है । यहाँ देव-दर्शन पर अर्पण की प्रथा है। अर्पण श्रद्धा का प्रतीक है। अत: अर्पण पुष्प का हो या राशि का, इसमें अन्तर नहीं पड़ता।

राखी पर्व पर भाई देवी रूपी बहिन के दर्शन करने जाता है। पुष्पवत्‌ फल या मिष्टान्न साथ ले जाता है। राखी बंधवाकर पत्र पुष्प-रूप में राशि भेंट करता है। ‘पत्रं-पुष्पं-फलं तोयम्‌’ की विशुद्ध भावना उसके अन्तर्मन को आलोकित करती है। इसीलिए वह दक्षिणा-अर्पण कर खुश होता है।

भाई बहिन का यह मिलन बीते दिनों की आपबीती बताने का सुन्दर सुयोग है। एक-दूसरे के दुःख, कष्ट, पीड़ा को समझने की चेष्टा है तो सुख, समृद्धि, यशस्विता में भागीदारी का बहाना।

आज राजनीति ने हिन्दू धर्म पर प्रहार करके उसकी जड़ों को खोखला कर दिया है। तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की ओट में हिन्दू-भूमि भारत में हिन्दू होना “साम्प्रदायिक ‘ होने ‘का परिचायक बन गया है । ऐसे विषाक्त वातावरण में भी रक्षाबन्धन पर्व पर पुरातन परम्परा ‘का पालन करने वाले पुरोहित घर-घर जाकर धर्म की रक्षा का सूत्र बाँधता है । रक्षा बाँधते हुए-

येन बद्धो बली राजा, दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वां प्रतिबंद्नामी , रक्षे! मा चल, मा चल।॥।

मंत्र का उच्चारण करता है। यजमान को बताता है कि रक्षा के जिस साधन (राखी) से महाबली राक्षसराज बली को बाँधा गया था, उसी से मैं तुम्हें बाँधता हूँ। हे रक्षासूत्र ! तू भी अपने धर्म से विचलित न होना अर्थात्‌ इसकी भली-भाँति रक्षा करना।

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