करवा चौथ ( करक चतुर्थी ) पर निबंध | Essay on Karwachauth in Hindi
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करवा चौथ ( करक चतुर्थी ) -पति की दीर्घायु का व्रत
पति की दीर्घायु और मंगलकामना हेतु हिन्दू-सुहागिन नारियों का यह महान् पावन पर्व है। करवा (जल-पात्र) द्वारा कार्तिक मास के कृष्ण-पक्ष की चतुर्थी को चन्द्रमा को अर्ध्य देकर पारण (उपवास के बाद का पहला भोजन) करने का विधान होने से इसका नाम करवा चौथ है । करवा चौथ और करक-चतुर्थी पर्यायवाची हैं। चंद्रोदय तक निर्जल उपवास रखकर पुण्य संचय करना इस पर्व की विधि है। चन्द्र दर्शनोपरांत सास या परिवार में ज्येष्ठ श्रद्धेय नारी को बायन (बायना) दान देकर ‘ सदा सौभाग्यवती भव‘ का आशीर्वाद लेना व्रत साफल्य का सूचक है।
सुहागिन नारी का पर्व होने के नाते यथासम्भव और यथाशक्ति न्यूनाधिक सोलह श्रृंगार से अलंकृत होकर सुहागिन अपने अन्तःकरण के उल्लास को प्रकट करती है। पति चाहे गूँगा हो, बहरा हो, अपाहिज हो, क्षय या असाध्य रोग से ग्रस्त हो, क्रूर-अत्याचारी-अनाचारी या व्यभिचारी हो, उससे हर प्रकार का संवाद और संबंध शिथिल पड़ चुके हों,फिर भी हिन्दू नारी इस पर्व को कुंठित मन से ही सही, मनाएगी अवश्य। पत्नी का पति के प्रति यह मूक समर्पण दूसरे किसी भी धर्म या संस्कृति में कहाँ ?
करवा चौथ उपवास का कारण और प्रकार
पुण्य प्राप्ति के लिए किसी पुण्य तिथि में उपवास करने या किसी उपवास के कर्मानुष्ठान द्वारा पुण्य संचय करने के संकल्प को व्रत कहते हैं। व्रत और उपवास द्वारा शरीर को तपाना तप है। व्रत धारण कर, उपवास रखकर पति की मंगलकामना सुहागिन का तप है। तप द्वारा सिद्धि प्राप्त करना पुण्य का मार्ग है। अत: सुहागिन करवा चौथ का व्रत धारण कर उपवास रखती हैं।
समय, सुविधा और स्वास्थ्य के अनुकूल उपवास करने में ही व्रत का आनन्द है। उपवास तीन प्रकार के रखे जाते हैं-
(क) ब्रह्म मुहूर्त से चद्रोदय तक, जल तक भी ग्रहण न करना।
(ख) ब्रह्ममुहूर्त में सर्गी, मिष्टानन, चाय आदि द्वारा जलपान कर;लेना।
(ग) दिन में चाय या फल स्वीकार कर लेना, किन्तु अन्न ग्रहण नहीं करना।
करवा चौथ पर्व की विविधता
भारतीय पर्वों में विविधिता का इन्द्रधनुषीय सौन्दर्य है। इस पर्व के मनाने, व्रत, रखने उपवास करने में मायके से खाद्य-पदार्थ भेजने, न भेजने, रूढ़ि-परम्पशा से चली कथा सुनने-न सुनने, बायना देने-न देने, करवे का आदान-प्रदान करने-न करने, श्रद्धेय, प्रौढ़ा से आशीर्वाद लेने-न लेने की विविध शैलियाँ हैं ।इन सब विविधता में एक ही उद्देश्य निहित है, ‘पति का मंगल।
पश्चिमी सभ्यता में निष्ठा रखने वाली सुहागिन, पुरुष-मित्रों में प्रिय विवाहित नारी तथा बॉस की प्रसन्नता में अपना उज्ज्वल भविष्य सोचने वाली पति के प्रति अपूर्ण निष्ठिता का भी करवा चौथ के दिन सब ओर से ध्यान हटाकर व्रत के प्रति निप्ठा और पति के प्रति समर्पण करवा-चौथ की ही महिमा है।
करवा चौथ की सार्थकता
हिन्दू धर्म विरोधी, ‘खाओ-पीओ मौज उड़ाओ ‘ की सभ्यता में सरोबार तथा कथित प्रगतिशील तथा पुरुष-नारी समानता के पक्षपाती एक प्रश्न खड़ा करते हैं कि करवा चौथ का पर्व नारी के लिए ही क्यों ? हिन्दू धर्म में पुरुष के लिए पत्नी-व्तरत का पर्व क्यों नहीं ?
भारतीय समाज पुरुष प्रधान है। 9.9 प्रतिशत परिवारों का संचालन-दायित्व पुरुषों पर है। पुरुष अर्थात् पति। ऐसे स्वामी, परम-पुरुष, परम-आत्मा, जिससे समस्त परिवार का जीवन चलता है, सांसारिक कष्टों और आपदाओं में अपने पौरुष का परिचय देता है, परिवार के उज्ज्वल भविष्य की ओर अग्रसर करने में जो अपना जीवन समर्पित करता है, उसके दीर्घ जीवन की मंगलकामना करना कौन-सा अपराध है?
यह एक कटु सत्य है कि पति की मृत्यु के बाद परिवार पर जो दुःख-कष्ट आते हैं, विपदाओं का जो पहाड़ टूटता है, उससे नारी का जीवन नरक-तुल्य बन जाता है ।’निराला जी ने सच ही कहा है-
बह क़ूर काल तांडव की स्मृति रेखा-सी
निराला
वह टूटे तरु की छुटी लता-सी दीन
दलिव भारत की विधवा है।
रही ‘पत्नी-व्रत की बात। पति चाहे कितना भी कामुक हो, लम्पट हो, नारी-मित्र का पक्षधर हो, अपवाद स्वरूप संख्या में नगण्य-सम पतियों को छोड़कर सभी पति ‘परिवार-पोषण के संकल्प से, ब्रत से आबद्ध रहते हैं। अपना पेट काटकर, अपनी आकांक्षाओं को कुचलकर, अपने दुःख-सुख की परवाह छोड़कर इस व्रत का नित्य पालन करते हैं | अपने परिवार का भरण-पोषण, सुख-सुविधा और उज्ज्वल भविष्य मेरा दायित्व है, मेरा व्रत है। वह इस ब्रत-पालन में जीवन को सिद्धि मानता है-
व्रतेन दीक्षामाणोति, दीक्षयाणोति दक्षिणाम्।
दक्षिणा श्रद्धामाणोति, श्रद्धया सत्यमाप्यते।
व्रत से दीक्षा प्राप्त होती है । दीक्षा से दक्षिणा प्राप्त होती है । दक्षिणा से श्रद्धा प्राप्त होती है। श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति होती है।
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