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डॉ भीमराव अम्बेडकर जीवन परिचय निबंध जयंती | B R Ambedkar biography Jayanti in hindi
डॉ० भीमराव अम्बेडकर प्रतिभा के धनी, विद्या में आगर, इतिहास-विधि-अर्थ-समाज-शास्त्र में निपुण , स्वतन्त्र भारत के संविधान के निर्माता, बीसवीं सदी के मनु, जीवन भर दलित समाज के कल्वाण के लिए जूझने वाले, प्यार और श्रद्धा से बाबा साहेबके नाम से वाद किये जाने वाले भारतरल डॉ० भीमराव अम्बेडकर भारत के सपूतों में से एक हैं।

डॉ० भीमराव अम्बेडकर जन्म और बाल्य काल
महाराष्ट्र में एक क्षेत्र का नाम है “कोंकण। इसमें एक गांव हे “अंबावड़े’ | इसी में “मालोजी सकपाल” रहते थे जो “महार’ जाति के थे। यहां के महार लोग प्राय: बलिष्ठ, मेधावी और वीर होते थे। मालोजी सकपाल सेना की सेवा से निवृत्त होने के बाद विरक्त होकर साधु हो गये। मालोजी के “रामजी सकपाल’ नाम का एक पुत्र था। रामजी सेना के स्कूल में चौदह वर्षों तक प्रधान अध्यापक थे। इसके बाद ये सूबेदार मेजर हुए। रामजी सकपाल को चौदह संतानें हुई जिनमें अंतिम थे ‘भीमराव’ जिन्हें हम डॉ० अम्बेडकर नाम से जानते हैं।
डॉ० अम्बेडकर की परिवार-परम्परा कबीरपंथी थी और उनका ननिहाल भी कबीरपन्थी था, जहां से उनकी माता ‘भीमाबाई” आई थीं। इस प्रकार डॉ० अम्बेडकर का पितृपक्ष और मातृपक्ष–दोनों कबीरपन्थी होने से उन्हें धार्मिक संस्कार मिले थे। इसका प्रभाव डॉ० अम्बेडकर के पूरे जीवन पर रहा।
भीमराव का जन्म मध्यप्रदेश के महू” नाम के स्थान पर १4 अप्रैल १89१ ई० में हुआ था। भीमराव की छह वर्ष की उम्र में उनकी माता भीमा देवी का देहांत हो गया। किन्तु भीमराव की बुआ ‘मीरादेवी” ने उनको मातृस्नेह देकर पाला।
भीमराव के माता-पिता कबीरपन्थी होने से वे पक्के शाकाहारी थे। उनके घर में मांस, मछली, अण्डे, शराब इत्यादि के आने की संभावना ही नहीं थी। इसका प्रभाव भीमराव पर प्रायः जीवनभर रहा।
विवाह शिक्षा
भीमराव जी ने प्राथमिक शिक्षा से चलकर सत्रह वर्ष की उम्र में मेट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की, और उसके बाद ही उनका विवाह “रमाबाई” नाम की नौ वर्ष की लड़की से हो गया। आगे चलकर रमाबाई ने भीमराव की उन्नति में हर प्रकार से सहयोग किया।
पिता जी की महत्त्वाकांक्षा एवं सहयोगियों के प्रोत्साहन से भीमराव ने बम्बई के एक कालेज में प्रवेश लिया। कालेज की पढ़ाई में भीमराव को आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इस क्रम में एक सज्जन ने भीमराव की भेंट बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ से करायी। महाराज ने पहले से ही यह घोषणा की थी कि किसी योग्य दलित छात्र को हम आर्थिक सहायता करेंगे। अतएवं भीमराव के मिलने पर महाराज ने उन्हें पचीस रुपये प्रतिमाह छात्रवृत्ति देने का निर्णय लिया ।
भीमराव ने 1912 ई० में बी० ए० की परीक्षा पास की और इसके कुछ महीने बाद उनके पिता रामजी सकपाल का देहावसान हो गया। इस दुखद घटना में बाइस वर्ष का युवक भीमराव फूट-फूट कर रो पड़े ।
हर्ष और शोक के दिन स्थिर नहीं रहते। युवक भीमराव ने पुनः साहसकर तथा बड़ौदा महाराज गायकवाड़ से मिलकर अपनी विद्या-पिपासा बतायी। महाराज अपने खर्च पर कुछ तेज विद्यार्थियों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए अमेरिका भेजने वाले थे। इसमें शर्त यह थी कि जब विद्यार्थी लौटकर भारत आयें तब अपने दस वर्ष बड़ौदा-रियासत की सेवा करें। सेवा में वेतन तो मिलना ही था। भीमराव का भी महाराज ने चुनाव कर लिया और उन्हें अपने खर्च से अमेरिका भेज दिया।
1913 ई० की जुलाई में भीमराव न्यूयॉर्क पहंचे। उन्होंने “कोलंबिया विश्वविद्यालय” में शिक्षा ग्रहण करना शुरू किया। उन्होंने दो वर्षो के कठोर परिश्रम से “एनशियंट इंडियन कॉमर्स”” नाम के शोध-प्रबन्ध के आधार पर एम०ए० की डिग्री प्राप्त की ।
भीमराव का दूसरा शोध-प्रबन्ध था “नेशनल डिविडेंड इन इन्डिया ए हिस्टोरिक एण्ड ऐनेलेटिक स्टडी’”। इसी शोध-प्रबन्ध के आधार पर भीमराव ने “डॉक्टर ऑफ फिलासफी” की डिग्री प्राप्त की। इस प्रकार युवक भीमराव 1916 में डॉ० अम्बेडकर हो गये।
डॉ० अम्बेडकर अमेरिका से लन्दन गये। वे वहां रहकर और पढ़ना चाहते थे, परन्तु बड़ौदा रियासत के दीवान ने डॉ० अम्बेडकर को भारत बुला लिया। डॉ० अम्बेडकर ने अमेरिका-प्रवास में करीब दो हजार पुरानी पुस्तकें खरीदी थी। उन्हें छह बड़े-बड़े बाक्सों में भरकर भारत भेजा, परन्तु जहाज दुर्घटना में वे समुद्र के पानी को भेंट हो गयीं। उसके बदले में जहाज-कम्पनी से उनको पैसे मिले। डॉ० अम्बेडकर 1917 ई० में भारत लौट आये।
उनके मन में ज्ञान की तीत्र इच्छा थी, अत: वे अवसर पाते ही 1920 की जुलाई में लन्दन पहुंचे। वहां उन्होंने ब्रिटिश म्यूजियम, इण्डिया ऑफिस लाइब्रेरी, लन्दन यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी, सिटी लाइब्रेरी आदि में गहन अध्ययन किया। उन्होंने ““प्राविन्शियल डिसेंट्लाइजेशन दर ऑफ इम्पीरियल ‘फाइनेन्स ड्न ब्रिटिश इण्डिया” शीर्षक नाम के अपने शोध-प्रबन्ध के फलस्वरूप एम० एस० सी० की उपाधि प्राप्त की; और “द प्रॉब्लम आफ रूपी” नामक शोध-प्रबन्ध भी लन्दन विश्वविद्यालय को प्रस्तुत किया। उन्होंने इसी क्रम में बैरिस्ट्री भी पास की।
भीमराव अम्बेडकर और छुआछूत
यह सच है कि पूरे विश्व में उच्च-से-उच्च कहे जाने वाले गोत्र में पैदा हुए ऐसे लोग सब समय हुए हैं जिन्होंने जन्म और जातिगत ऊंच-नीच तथा छुआछूत को नहीं माना है और पूरे मानव-समाज को एक दृष्टि से देखा है और उनका व्यवहार भी समतामूलक रहा है।
दूसरी तरफ यह भी सच है कि पूरे संसार के प्रायः सभी तथाकथित जातियों में दूसरों को हेय, तुच्छ एवं अछूत की दृष्टि से देखने का अभिशाप रहा है। गोरे लोग काले रंग के मनुष्यों को सदेव से अछूत समझते आये है ।
अरब के मुसलमान दूसरे मुसलमानों को तुच्छ समझते हैं। विजयी तुर्क लोग मूल भारतीय मुसलमानों को नीच समझते थे। आज भी शेख-सैयद कहलाने वाले जोलहा, धुनिया, गद्दी आदि मुसलमानों को तुच्छ समझते हें। उन्हें वे खान-पान और उपासना में साथ ले लेते हैं, परन्तु विवाह-सम्बन्ध कभी नहीं कर सकते।
यह परम सत्य है कि हिन्दू समाज जन्म और जाति के आधार पर जितना ऊंच-नीच तथा छआछूत की भावना से प्रदूषित है, वह अनुपम है। तथाकथित ब्राह्मण अ-ब्राह्मण कहे जाने वाले को नीच मानता है। इतना ही नहीं, एक गोत्र का ब्राह्मण दूसरे गोत्र के ब्राह्मण को नीच मानता है। एक गोत्र का क्षत्रिय दूसरे गोत्र के क्षत्रिय को तुच्छ समझता है। यही बात कुर्मी, यादव, साहू, धोबी, चमार आदि सब में है। उनकी एक-एक जाति के भीतर गोत्र को लेकर ऊंच-नीच की भावना बनी है।
इस बीसवीं सदी के अन्त में काफी समता का भाव आया है, फिर भी भीतर-भीतर अभी विषमताजनित सड़न बनी है। आज से साठ-सत्तर या अस्सी वर्ष पूर्व तो इस दिशा में काफी ख़राब थी। बालक भीमराव अपने बड़े भाई के साथ प्राथमिक पाठशाला में जब पढ़ने जाता था, तब उसे पानी पीने की समस्या होती थी। वह सार्वजनिक नल को छू नहीं सकता था। सभी बच्चों के साथ स्कूल के टाट पर बैठ नहीं सकता था। इसलिए उसे अपने बैठने के लिए घर से बोरा ले जाना पड़ता था और सब बच्चों से अलग बैठना पड़ता था।
एक बार बालक भीमराव अपने भाई तथा भतीजे के साथ गोरेगांव जा रहे थे। वे मसूर रेलवे स्टेशन पर उतरे। उन्होंने एक बैलगाड़ी किराये पर की। रास्ते में गाड़ी वाले ने जब यह जाना कि ये बच्चे महार जाति के हें, तो वह बहुत बिगड़ा। उसने इन बच्चों के उज्ज्वल कपड़े तथा गोरे रंग देखकर समझा था कि ये उच्चवर्ण के हैं। जब भीमराव ने दूना किराया देने की बात कही, तब उसने मान लिया, परन्तु वह स्वयं गाड़ी से उतरकर पैदल चलता रहा और गाड़ी इन बच्चों ने स्वयं हांकी। गाड़ीवान ने महार जाति के बच्चों को बैठाकर स्वयं गाड़ी हांकने में अपनी तौहीन समझी।
एक बार बालक भीमराव ने चुपके से प्याऊ से पानी पी लिया था। लोगों ने जब यह जाना तो भीमराव उनके द्वारा पीटे गये। नाई भीमराव के बाल नहीं काटता था। इसलिए उनकी बहिन उनके बाल काटती ती। कई बार स्वाभिमान में ठेस लगने के भय से भीमराव प्यासे ही बहुत समय तक रह जाते थे।
एक बार अध्यापक ने भीमराव से श्याम-पट पर एक सवाल हल करने को कहा। ब्लैक बोर्ड के पास लड़कों के खाने के डिब्बे रखे हुए थे, सभी बच्चे दौड़कर अपने-अपने डिब्बे वहां से इस डर से उठा लिये कि भीमराव से हमारे भोजन न छू जाय॑।
भीमराव तथा उनके बड़े भाई बलराम जब हाईस्कूल में पढ़ रहे थे तब वे दूसरी भाषा के रूप में संस्कृत पढ़ना चाहते थे, परन्तु उन्हें नहीं पढ़ने दिया गया। न पढ़ने देने में यह बेतुकी बात थी कि शूद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है। इसी प्रकार संस्कृत देवभाषा होने से शूद्र उसके पढ़ने के अधिकारी नहीं हैं। वैसे जड़-शास्त्रों के अनुसार शूद्र को कुछ भी पढ़ने का अधिकार नहीं है। अन्तत: विवश होकर भीमराव दोनों भाइयों को संस्कृत छोड़कर फारसी भाषा लेना पड़ा।
जब भीमराव कालेज में पढ़ रहे थे तब होटल वाला उन्हें न चाय पिलाता था न पानी। एक अध्यापक प्रो० मूले उन्हें पुस्तकों और कपड़े तक का सहयोग करते थे, परन्तु अन्य अध्यापक उन्हें अछूत ही समझते थे।
पहली बार अमेरिका से पढ़कर लौटने पर शर्त के अनुसार बड़ौदा-रियासत में डॉ० अम्बेडकर को दस वर्ष सेवा में रहना था। जब वे बड़ौदा पहुंचे तब उन्हें कोई अपने होटल या हॉस्टल में रखने के लिए तैयार नहीं था। दफ्तर में उन्हें कोई पानी पिलाने के लिए तैयार नहीं था। चपरासी भी उनकी मेज पर दूर से फाइल फेंक देता था जिससे वह स्वयं एक अछूत से छू न जाय। डॉ० अम्बेडकर छदम रूप में एक पारसी के होटल में ठहर गये थे; परन्तु जब उसे पता चला कि अम्बेडकर अछूत हैं तब उसने उन्हें धक्के देकर होटल से निकाल दिया और उनका सारा सामान बाहर फेंक दिया।
बड़ौदा जैसे बड़े शहर में डॉ० अम्बेडकर को रहने की जगह नहीं मिली। उन्होंने बड़ौदा में अपने रहने की समस्या के निदान के लिए एक प्रार्थना-पत्र महाराज के पास भेजा। महाराज ने उसे दीवान के पास भेजा, परन्तु दीवान ने उनको निवास देने में अपनी असमर्थता जतायी; क्योंकि वहां की पूरी मशीनरी ही छुआछूत की कुरीति से भरी थी। महाराज डॉ. अम्बेडकर को चाहते हुए भी विवश हो गये।
जिस दिन होटल बाले ने उन्हें निकाला था, वे उस रात को खुले आकाश में पेड़ के नीचे भूखे-प्यासे, दिल में पीड़ा तथा आंखों में आंसू लिये बैठे रह गये। दूसरे दिन विवश होकर उन्हें अपना सामान लेकर बम्बई लौट जाना पड़ा। जब वे बम्बई लौटे तो आजीविका का प्रश्न आया। एक सज्जन के सहारे उन्हें दो पारसी के बच्चों को पढ़ाने के लिए ट्यूशन मिल गया। साथ-साथ उन्होंने स्टॉक और शेयरों के विषय में राय देने के लिए व्यावसायिक फर्म की स्थापना की। पहले यह धन्धा अच्छा चला; परन्तु जब लोगों को यह पता चला कि राय देने वाला अछूत है तब धीरे-धीरे ग्राहक आना बन्द कर दिये और उन्हें फर्म बन्द कर देना पड़ा।
एक बार डॉ० अम्बेडकर एक सभा में जा रहे थे। कोई तांगा वाला उन्हें ले जाने के लिए तैयार नहीं था। एक तांगा वाला इस शर्त पर तैयार हुआ कि वह स्वयं तांगा नहीं चलायेगा। एक उत्साही युवक तांगा हांकने लगा। उसका इस विषय में अभ्यास न होने से वह घोड़े की डोर सम्भाल नहीं सका और घोड़ा तांगे को एक गड्ढे में गिरा दिया। डॉ० अम्बेडकर को काफी चोट आयी और दाहिनी जांघ की हड्डी टूट गयी। उनको दो महीने बिस्तर पर पड़ा रहना पड़ा।
यह उस समय के हिन्दू-समाज की कलुषित छुआछूत का नमूना है । ‘आप स्वयं समझ सकते हैं कि यह सब जिस योग्य विद्वान पर बीता हो उसके दिल में कैसी प्रतिक्रिया हो सकती है!
भीमराव से भीमराव अम्बेडकर कैसे बने?
उपर्युक्त्त विषय का दूसरा पक्ष भी है कि बड़ौदा के महाराज ने डॉ० अम्बेडकर को ऊपर उठाने के लिए बहुत सहयोग दिया। जब भीमराव हाईस्कूल में पढ़ते थे, तब उन्हें एक ऐसे अध्यापक भी मिले थे कि वे अपने भोजन में से भीमराव को दोपहर की छुट्टी के समय भोजन देते थे, उनसे प्यार का व्यवहार करते थे। उनके नाम में अम्बेडकर” उपाधि लगी थी। भीमराव अपने नाम में अपने पैतृक निवास अम्बावड़े के आधार पर अम्बावडेकर उपाधि रखते थे, परन्तु इस दयालु एवं समतावादी अध्यापक से प्रभावित होकर उसकी
उपाधि को अपने नाम के साथ जोड़ लिया-अम्बेडकर I
श्रीधर पन्त से मुलाकात
प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी एवं कांग्रेस के महान नेता तथा वेदज्ञ ब्राह्मण ‘पण्डित लोकमान्य तिलक के सुपुत्र ‘श्रीधर पंत” को जब डॉ० अम्बेडकर का सम्पर्क मिला और उन्होंने उनका पूरा विचार जाना तो वे सदा के लिए डॉ० अम्बेडकर के प्रशंसक हो गये। पण्डित श्रीधर पंत ने समाज सुधार का बड़ा काम किया। वे अछूत कहे जाने वाले युवकों को अनेक सहयोग देने लगे। उन्होंने डॉ० अम्बेडकर को चायपार्टी पर आमन्त्रित किया। कोल्हापुर के नरेश ‘शाहू छत्रपति महाराज” ने डॉ० अम्बेडकर की दिल से प्रशंसा की और उदार होकर उनका सहयोग किया।
डॉ० अम्बेडकर की योग्यता
डॉ० अम्बेडकर इंगलिश भाषा के पण्डित तो थे ही, अन्य भाषाएं भी जानते थे। वे समाजशास्त्र, मानवशास्त्र, विधिशास्त्र, अर्थशास्त्र, इतिहास आदि में प्रकांड पण्डित थे। जब वे बम्बई के “सिंडेन्हम” कालेज में प्रोफेसर पद पर रहकर पढ़ाते थे तब उनके लेक्चर से प्रभावित होकर दूसरे कालेज के छात्र भी सुनने आ जाते थे।
भाषा पर उनका जबर्दस्त अधिकार था। उनका भाषण ओजस्वी होता था। उन्होंने लंदन के प्रथम गोलमेज में जो भाषण दिया था, उसे सुनकर इंग्लैंड और भारत के उपस्थित विद्वान तथा नेता चकित रह गये थे। उस समय वहां उपस्थित बड़ौदा-नरेश ने तो गदगद होकर कहा था कि भीमराव को दिया हुआ मेरा सहयोग सफल हो गया। डॉ० अम्बेडकर कुशल बैरिस्टर (वकील ) भी थे।
डॉ० अम्बेडकर की क्रांति
डॉ० अम्बेडकर ने 3 जनवरी 1920 ई० से “मूक नायक” नाम का समाचार पत्र निकालना आरम्भ किया। यद्यपि वे उसके सम्पादक नहीं थे, तथापि वे ही इस पत्र के सर्वस्व थे। इस समाचार पत्र का मुख्य उद्देश्य था कि ज्ञान तथा अधिकार समाज के एक ही वर्ग के पास सिमिटकर न रहें, अपितु ये सर्वजनीन हों। धरती पर जन्में सभी मानव का सभी दिशाओं में बढ़ने तथा ‘फूलने-फलने का अवकाश हो। कोई जन्म एवं जाति के कारण उपेक्षित न रह जाय और कोई अनुचित लाभ न ले।
डॉ० अम्बेडकर को दो महान समाज-सुधारकों से बड़ा बल मिला था। वे थे ज्योतिराव गोविंदराव ” तथा कोल्हापुर के नरेश “छत्रपति शाहू महाराज”। ज्योतिराव गोविंदराव फुले ने 837 ई० में ‘सत्यशोधक समाज!
नाम की संस्था भी स्थापित की थी। छत्रपति शाहू महाराज तो डॉ० अम्बेडकर के समय में सक्रिय और उनके पक्षधर थे। मातृ-वंश एवं पितृ-वंश से सन्त कबीर साहेब के मानवतावादी विचार डॉ० अम्बेडकर को मिले ही थे। स्वयं के भुक्तभोगी जीवन ने उन्हें मथकर रख दिया था।’
बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना
डॉ० अम्बेडकर ने मार्च 1924 ई० में “बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ की स्थापना की। इसका उद्देश्य था अछूत कहे जाने वाले दलितवर्ग का सर्वतोमुखी विकास करना। इसमें यह भी निर्णय लिया गया था कि इस कार्य में उच्चवर्ग की भी सहानुभूति एवं सहयोग प्राप्त करने का प्रयास किया जाय। डॉ० अम्बेडकर कहते थे ‘सेल्फ हेल्प इज़ बेस्ट हेल्प” अर्थात अपनी सहायता श्रेष्ठ सहायता है। जब तक हम स्वयं अपने पैरों पर खड़े नहीं होते, तब तक दूसरे की सहायता अधिक लाभप्रद नहीं हो सकती। अच्छी शिक्षा, अच्छे संस्कार, सदगुण तथा आर्थिक सुधार से ही कोई समाज आगे बढ़ सकता है। शिक्षा और अच्छे संस्कार ग्रहण करने से आर्थिक सुधार अपने आप होगा।
कुछ ऐसे सुधारक होते हैं जो मानवमात्र को मूलतः समान मानकर उन्हें समता से रहने के उपदेश देते हें और कुछ ऐसे सुधारक होते हें जो बड़े कहलाने वालों को फटकारते भी हैं और छोटे कहलाने वालों को ललकार कर उन्हें अपना कर्तव्य-बोध एवं अधिकार-बोध कराते हें। डॉ० अम्बेडकर ने दलितों को अपना कर्तव्य-बोध तथा अधिकार-बोध कराया। उन्होंने अपना हक मांगा और इसके लिए प्राणपण से सत्याग्रह किया।
महाराष्ट्र के एक महाड़ नामक जगह में एक तालाब से एक वर्ग को पीने के लिए पानी नहीं लेने दिया जाता था। इस वर्ग को अन्य लोग अछूत कहते थे। कैसा अद्भुत धर्म था! उसमें मुसलमान तथा इसाई पानी पी सकते थे, परन्तु हिन्दू का एक वर्ग जिसे अछूत नाम दिया गया, पानी नहीं पी सकता था। यहां तक कि कुत्ते-बिल्ली जब उसका पानी पीते थे तब तालाब अशुद्ध नहीं होता था, किन्तु अमुक वर्ग के मानव के पीने से वह अशुद्ध हो जाता था।
बहिष्कृत भारत पत्र
डॉ० अम्बेडकर ने इसका कड़ा विरोध किया । हजारों को लेकर जुलूस निकाला, सभाएं की | उन्होंने यायपालिका और समाज–दोनों को प्रभावित किया। डॉ० अम्बेडकर ने 927 ई० में “बहिष्कृत भारत” नाम का एक पाक्षिक पत्र निकाला, जिसमें दलित समुदाय को जगाने की चेष्टा की। अपने इस अभियान में उन्होंने बाल गंगाधर तिलक जैसे नेता को भी नहीं बख्शा। उन्होंने लिखा “यदि तिलक किसी अछूत के घर पैदा हुए होते तो स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार हे” का नारा देने के बजाय यह नारा देते छुआछूत मिटाना
मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।
केवल दलित बर्ग को उठाने की चेष्टा, फिर राष्ट्रवादी विचार
डॉ० अम्बेडकर भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई न लड़कर केवल दलितों को उठाने के लिए लड़ते थे। यह अपने आप में बहुत बड़ा काम था। “वे सत्ता-परिवर्तन में अधिक विश्वास न करके आम आदमी, गरीब आदमी और पिछड़े आदमी के विकास और उसकी सत्ता के विकास में अधिक विश्वास करते थे। यही कारण हे कि विचारों और लेखन में प्रखर राष्ट्रवादी होते हुए भी उन्होंने देश की राजनैतिक स्वतंत्रता के आंदोलन में भाग नहीं लिया ।
साइमन कमीशन का विरोध
ब्रिटिश-सरकार ने एक आयोग का गठन कर भारत भेजा था कि वह देश भर में घूमकर उसका अध्ययन करे और बाद में अपनी रिपोर्ट दे जिससे भारत के हित में उसके अधिनियम में संशोधन किया जा सके। इस आयोग के अध्यक्ष थे ‘सर जॉन साइमन’। इसलिए इस आयोग का नाम था ‘साइमन कमीशन”। राष्ट्रवादी भारतीय कांग्रेस पार्टी ने ‘साइमन कमीशन” का विरोध किया। राष्ट्रवादी नेता समझते थे कि यह कमीशन भारतीयों को भुलावे में रखने का एक गोरखधन्धा है जिससे उनका मन स्वतंत्रता के संघर्ष से हटा रहे। इसलिए कांग्रेस ने इसका विरोध किया।
अंग्रेज सरकार ने बम्बई प्रांत में ‘साइमन कमीशन” का सहयोग करने के लिए समिति बनायी। उसमें डॉ० अम्बेडकर सदस्य बने। डॉ० अम्बेडकर का यह व्यवहार राष्ट्रवादी नेताओं को बुरा लगा। वैसे डॉ० अम्बेडकर देश के लिए कोई अ-भक्ति का काम नहीं कर रहे थे। वे समझते थे कि यदि हम ब्रिटिश सरकार का सहयोग करेंगे, तो वह भारत के दलितों के उत्थान में सहयोग देगी। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में यह लिखा था कि भाषा के आधार पर प्रांत तथा समुदाय के आधार पर पृथक मताधिकार की मांग करना अनुचित है।
डॉ० अम्बेडकर ने धीरे-धीरे समझा कि दलित वर्ग का उत्थान ब्रिटिश- शासन से नहीं हो सकता। अतएव हमें राष्ट्रीय स्वतन्त्रता का पक्षधर होना चाहिए। “’डॉ० अम्बेडकर द्वारा भारत की राजनीतिक स्वतन्त्रता का समर्थन करने से दलित वर्ग को एक नई दिशा मिली। अब तक के दलित वर्ग के आंदोलन में यह विशेषता नहीं थी कि दलितवर्ग अपने मानवीय एवं सामाजिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने के साथ-साथ देश की आजादी के आंदोलन का भी व्यापक समर्थन करता रहा हो। अब तक दलितवर्ग ब्रिटिश-शासन को
अपने हित में मानता आ रहा था।
गोलमेज-सम्मेलन

महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने भारत की जनता को स्वतन्त्रता के लिए जगा दिया था। भारत में ब्रिटिश-सरकार के लिए सर्वत्र असंतोष फैल गया था। ब्रिटिश-सरकार भारत को निरंतर चूस रही थी। यहां तक कि जब वर्षा न होने से अकाल पड़ता था, तब अन्न के बिना हजारों तथा लाखों भारतीय तड़प-तड़प कर मर जाते थे, और ब्रिटिश-सरकार मूक-दर्शक बनकर बैठी रहती थी। भारत से कपास सस्ते दाम पर इंग्लेण्ड जाता था और इंग्लैण्ड से कपड़ा बनकर भारत में आता था जो अपेक्षया बहुत महंगे दाम में बिकता था। ब्रिटिश-सरकार हर प्रकार भारत का खून चूसती थी। राष्ट्रवादी नेताओं ने यह सब जनता को अच्छी तरह बता दिया था।
भारत के असंतोष को दूर करने के लिए ब्रिटिश-सरकार ने गोलमेज-सम्मेलन” नाम पर एक आयोजन किया, जिसमें ब्रिटेन के तीन राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि सोलह सदस्य थे। 53 भारतीय सदस्य थे, जिसमें बीस देशी रियासतों के और तेंतीस राजनीतिक दलों तथा विभिन्न सम्प्रदायों के प्रतिनिधि थे। इसमें ब्रिटिश-सरकार की यह मनसा थी कि आपस में मिल-बैठकर कुछ ऐसा संविधान बनाया जाय कि भारत के लोगों का असन्तोष दूर हो जाय।
कांग्रेस के नेता समझते थे कि यह ब्रिटिश-सरकार की चाल है। वह किसी प्रकार भारत को भुलावे में रखना चाहती है। इसलिए कांग्रेस ने इस सम्मेलन का बहिष्कार किया। परन्तु कुछ राजे-महाराजे, हिन्दू नेता तथा मुस्लिम नेता जिन्ना और डॉ० अम्बेडकर इस गोलमेज सम्मेलन में लन्दन गये।
डॉ० अम्बेडकर ने इस सम्मेलन में बड़ा प्रभावशाली भाषण दिया था। बड़ौदा-नरेश महाराज गायकवाड़ उस सभा में उपस्थित थे | वे बहुत प्रभावित हुए। वे जब अपने डेरे पर आये तो महारानी से गद्गद होकर उन्होंने कहा कि डॉ० अम्बेडकर को आर्थिक सहयोग देकर जो मेंने उन्हें पढ़ाया था वह आज वसूल हो गया। ऐसा कहते-कहते नरेश की आंखों से आंसू छलक आये। महाराजा ने डॉ० अम्बेडकर को एक शानदार भोज भी दिया।
इस सम्मेलन में डॉ० अम्बेडकर लंदन तथा बाहरी संसार को यह अच्छी तरह बता सके थे कि भारत में अछूत कहे जाने वाले तथा दलित वर्ग की क्या स्थिति है। इस प्रथम गोलमेज-सम्मेलन में डॉ० अम्बेडकर के भाषण से भारतीय कांग्रेस कमेटी के राष्ट्रीय नेताओं को भी उनके तथा उनके उद्देश्य को समझने में सरलता हुई। यह प्रथम गोलमेज-सम्मेलन 1930 ई० के नवंबर में लंदन में हुआ था।
भीमराव अम्बेडकर तथा गांधी जी से मुलाकात
6 अगस्त 1931 ई० को महात्मा गांधी ने डॉ० अम्बेडकर को पत्र लिखकर मिलने के बुलाया, और लिखा कि यदि आप किसी कारणवश न मिल सकें तो मुझे आपके पास आकर मिलने में प्रसन्नता होगी। डॉ० अम्बेडकर महात्मा गांधी से मिले। यही प्रथम मिलन था। कहा जाता है कि अभी तक महात्मा गांधी डॉ० अम्बेडकर को कोई सवर्ण समझते थे और मानते थे कि वे अपनी उदारनीतियों के कारण दलितों के उत्थान में लगे हें। परन्तु इस मुलाकात में उन्होंने डॉ० अम्बेडकर की वास्तविकता समझी ।
महात्मा गांधी छुआछूत तथा ऊंच-नीच शुरू से ही नहीं मानते थे। उनके आश्रम में चाहे दक्षिणी अफ्रीका हो या भारत, सभी जाति, वर्ण, वर्ग तथा अनेक देश के लोग एक साथ समभाव से रहते थे।
डॉ० अम्बेडकर तथा महात्मा गांधी में खास अन्तर था कि महात्मा जी हिन्दू-समाज से कोई जातिगत भावना से तिरस्कार या उपेक्षा नहीं पाये थे। अत: उनका दलित-उद्धार ठण्डे दिल से था। साथ-साथ वे भारत को आजाद कराने के अभियान में मुख्य रूप में लगे थे, इसलिए अछूतोद्धार उसमें एक अंग मात्र था।
दूसरी तरफ डॉ० अम्बेडकर शुरू से सवर्ण हिन्दू-समाज से अपने लिए छआछूत का व्यवहार पाये थे, इसलिए वे भुक्तभोगी थे। साथ-साथ वे दलित वर्ग से सीधे जुड़े थे, और उनका मात्र एक अभियान था दलित-उद्धार। भारत की स्वतंत्रता पर भी पहले उनकी दृष्टि नहीं थी। अतएब दोनों के दृष्टिकोणों में अन्तर तो था ही।
डॉ० अम्बेडकर चाहते थे कि अछूत कहे जाने वाले वर्ग को अपना पृथक निर्वाचन का अधिकार मिले। महात्मा गांधी इसके विरुद्ध थे। वे कहते थे कि ऐसा कर देने से अछूतों का अछूतपन स्थायी कर देना है। ऐसा करना हिन्दू- समाज की आत्महत्या है। इससे हिन्दू-समाज टूटेगा। डॉ अम्बेडकर तथा महात्मा गांधी दोनों आपसी बातचात से सन्तुष्ट नहीं थे।
सन् 1931 में लन्दन में दूसरा गोलमेज सम्मेलन हुआ। इसमें महात्मा गांधी भी गये थे और डॉ० अम्बेडकर भी। इसमें अन्य बातों के साथ दोनों नेताओं ने अपनी-अपनी बातें रखी थीं। संप्रदायों के पृथक निर्वाचन अधिकार को डॉ० अम्बेडकर स्वयं राष्ट्रविरोधी एवं बुरा मानते थे। बी० एल० मेघवाल लिखते हें “मुसलमानों द्वारा पृथक मताधिकार की मांग को अनावश्यक मानते हुए डॉ० अम्बेडकर ने बताया कि मुसलमान भारत में ही अल्पसंख्यक नहीं हें, बलगेरिया, ग्रीस, रुमानिया आदि में वे अल्पसंख्यक हें, किन्तु वहां तो वे पृथक मताधिकार की मांग नहीं करते। अतः भारत में यह मांग राष्ट्रविरोधी मांग मानी जानी चाहिए।
स्वतंत्र निर्वाचन की समस्या
जब महात्मा गांधी दक्षिणी अफ्रीका में थे, और उनसे कांग्रेस से मतलब नहीं था, तभी अर्थात सन् 1909 ई० में ब्रिटिश-सरकार ने भारतीय मुसलमानों के लिए स्वतंत्र निर्वाचन अधिकार का वातावरण बना दिया था और कांग्रेस- लीग-ऐक्ट में 1917 ई० में ही उन्हें उसका अधिकार मिल गया था। इस समय कांग्रेस में लोकमान्य तिलक का वर्चस्व था, गांधी का तो कांग्रेस में केवल प्रवेश था।
ब्रिटिश सरकार भारत को टुकड़े-टुकड़े करके उस पर राज करना या विदा होना चाहती थी। उसने सन् 1932 में घोषणा की कि भारत के विविध संप्रदायों को स्वतन्त्र निर्वाचच अधिकार होगा। इसको लेकर राष्ट्रीय नेता विचलित हो गये। इसके साथ हिन्दुओं में अछूतों को अलग निर्वाचन अधिकार होगा, इसका गांधीजी ने विरोध किया। उन्होंने संप्रदायों के आधार पर अलग निर्वाचन अधिकार को एकदम गलत बताया। गांधी जी ने कहा कि अछूत कहे जाने वाले बंधुओं को हिन्दुओं से काटकर अलग निर्वाचन अधिकार देना हम बिलकुल नहीं सहेंगे। गांधी जी ने इसके विषय में आमरण अनशन की घोषणा की। उस समय वे पूणे के यरवडा जेल में बन्द थे।
गांधी जी उपवास से बहुत कमजोर हो गये थे। डॉ० अम्बेडकर उनसे जेल में मिले और उन्होंने गांधी जी से धीरे से कहा “महात्मा जी, आपने हमारे साथ बहुत अन्याय किया है।” महात्मा गांधी ने कहा “हमारा पक्ष सदा ही अन्याय करता ही दिखाई देता है। डॉ० अम्बेडकर ने अपने पक्ष की सारी बातें बतायीं। इसका गांधी जी पर बड़ा प्रभाव पड़ा। उन्होंने डॉ० अम्बेडकर से कहा “आपके साथ मेरी पूर्ण सहानुभूति है। आपने जो बातें कहीं, उनमें से अधिकांश में मैं आपके साथ हूं। किन्तु आप यह बताइए कि आप मेरे जीवन को बचाना
चाहते हैं?” डॉ० अम्बेडकर ने उत्तर दिया “हां, महात्मा जी, इस आशा से कि आप हम लोगों के हित के लिए अपना जीवन समर्पित करेंगे और हमारे नायक भी बनेंगे।
गांधी जी ने कहा “डॉक्टर, आप जन्म से अछूत हैं और मैं दत्तक रूप से अछूत हूं। हमें एक और अविभाजित होना है। मैं अपना जीवन हिन्दू-समाज की विषमताओं को दूर करने में लगाने के लिए तैयार हूं। इसके बाद डॉ० अम्बेडकर ने महात्मा गांधी की सम्मति मान ली और अछूत कहे जाने वाले वर्ग के लिए पृथक निर्वाचन अधिकार की बात समाप्त हो गयी। समझौते के बाद दोनों नेताओं के हस्ताक्षर हुए और इसकी सूचना ब्रिटिश सरकार को दे दी गयी। अभी तक गांधी जी द्वारा अछूतोद्धार का काम जो मंदगति से चलता था, वह आज से खूब जोरदार ढंग से चलने लगा, जिसे महात्मा गांधी के जीवन में देखा जा सकता है ।
गांधी और अम्बेडकर के अभियान से अछूत कहे जाने वाले तथा दलित वर्ग का जो उत्थान कार्य हुआ वह आज बीसवीं सदी के आखिर दशक में
अत्यक्ष आनंदप्रद है।
आजादी के बाद पार्टी का गठन, विधि मन्त्री

डॉ० अम्बेडकर ने 936 ई० “इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी” का गठन किया। 15 अगस्त सन् 1947 ई0 में भारत स्वतंत्र होने पर प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने डॉ० अम्बेडकर को विधिमंत्री बनाया, जबकि वे कांग्रेस के आलोचक एवं विरोधी पार्टी के थे। संविधान-निर्माता एवं बीसवीं सदी के मनु पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने स्वतंत्र भारत का संविधान बनाने के लिए एक समिति गठित की जिसका अध्यक्ष डॉ० अम्बेडकर को बनाया। आज के भारतीय संविधान की रचना का श्रेय डॉ० अम्बेडकर को ही अधिक जाता है। इसीलिए उन्हें बीसवीं सदी का मनु कहा जाता है।
डॉ० अम्बेडकर ने “हिन्दू कोड बिल”” बनाने में भी बड़ा श्रम किया था। परन्तु वह उसी रूप में पास न होकर काट-छांटकर पास हुआ। इसलिए डॉ० अम्बेडकर खिन्न होकर विधि-मंत्री पद से इस्तीफा देकर विपक्ष के आसन पर बैठ गये।
डॉ० अम्बेडकर 1952 तथा 1954 में चुनाव हार गये। क्योंकि उस समय देश-व्यापी पार्टी कांग्रेस सबसे मजबूत थी। उसके सामने किसी जीतना बहुत कठिन था। परन्तु डॉ० अम्बेडकर जैसे योग्यतम व्यक्ति के लिए चुनाव की जीत-हार महत्त्व नहीं रखती। वे इस जीत-हार से बहुत ऊंचे थे।
पुनर्विवाह
डॉ० अम्बेडकर को मधुमेह रोग हो गया था। उनको डॉक्टर ने राय दी कि आप किसी युवती से विवाह कर लें तो रोग अच्छा हो जायेगा। वस्तुत: कभी- कभी डॉक्टर ही रोग बन जाता है। यद्यपि “अपने पिता का दूसरा विवाह कर लेना भीम को पसंद नहीं आया था। इससे उनके स्वाभिमान को ठेस लगी थी। फिर भी वही भूल आज उन्होंने स्वयं के लिए कर डाली और अपने 56वें जन्मदिन के दूसरे दिन डॉ० सविता कबीर से उन्होंने अपना विवाह रचा डाला। बुढ़ापा में युवती से विवाह एक और विडंबना है। फल यह हुआ कि डॉ० सविता से सम्बन्ध मधुर नहीं रह सके ।
6 दिसम्बर 1956 को डॉ० अम्बेडकर के आकस्मिक निधन ने संदेहों की जो परिधि खींची है उस घेरे में
डॉ० (श्रीमती) सविता अंबेडकर का नाम भी आता हे ।
बौद्ध दीक्षा
डॉ० अम्बेडकर ने 935 में ही धर्मातरण ग्रहण करने की बात कही थी। उन्होंने 44 अक्टूबर 1956 में नागपुर में बौद्ध दीक्षा ग्रहण की थी। डॉ० अम्बेडकर “हिन्दूधर्म विरोधी कतई नहीं थे। वे हिन्दूधर्म के दोहरे मानदण्डों के विरोधी थे। हिन्दू कोड बिल पारित कराने के उनके अथक प्रयासों के पीछे भी एक ही उद्देश्य था कि इस धर्म में जो विसंगतियां हें वे दूर हो सकें और सब हिन्दू एक “कॉमन पर्सलन लॉ” से नियंत्रित हों। इस सम्बन्ध में लोकसभा में हुई बहस में उन्होंने सरदार हुकुम सिंह के द्वारा की गयी आपत्तियों के उत्तर में भारत के विधि मंत्री के रूप में कहा था कि इस देश के कानून की दृष्टि में हिन्दू, सिख, जैन और बौद्ध एक ही कानून से नियंत्रित होते हैं, पृथक-पृथक कानून से नहीं।
वैसे धर्म-परिवर्तन शब्द अपने आप में एक धोखा हे। धर्म का परिवर्तन तो समझदार करेगा ही नहीं। सत्य ज्ञान तथा सत्य आचरण धर्म है। अत: धर्म का परिवर्तन है असत्य ज्ञान तथा असत्य आचरण पर चलना। अतएव मानवता के लिए धर्म-परिवर्तन असंभव है। हां, मत-परिवर्तन, दीक्षा-परिवर्तन, उपासना- परिवर्तन आदि होते हैं। डॉ० अम्बेडकर इस दिशा में बहुत दूरदर्शी थे। उन्होंने कुछ हिन्दुओं की अनुदारता की जड़ता की प्रतिक्रिया में जाकर भी बुद्धमत से ही दीक्षा ली जो हिन्दुत्व की वृहत्तम परिधि के भीतर ही है।
वैसे डॉ० अम्बेडकर को बौद्ध दीक्षा की भी आवश्यकता न पड़ती यदि वे अपने पैतृक कबीरपंथ को यादकर संत कबीर की गरिमा को समझ सके होते। जाति-पांति और वर्णाभिमान की धज्जियां जिस तरह संत कबीर ने उड़ाई है उसका एक अंश भी मूल बुद्ध बचन में नहीं मिलेगा। एक तरफ अध्यात्म की उच्चतम स्थिति में पहुचे और दूसरी तरफ सामाजिक विषमता का घोरतम विरोधी भारत में यदि कोई हे, तो अद्वितीय सन्त कबीर हें।
डॉ० धर्मवीर ने ठीक ही लिखा है– वास्तव में यदि बाबा साहब (अम्बेडकर) के गास उस समय भारत के तमाम दलित संतों का साहित्य उप्रलब्ध होता तो वे बुख की शरण जाने के बजाय अपने संतों के पास बैठते। तब वे त्रिपिटक में जाने के बजाय निर्गुण शब्द वाणी की गंगोत्री में आनंद स्नान करते। उन्हें मजबूरी में ही इतनी दूर जाना पड़ा, अन्यथा वे अपना ही महत्त्व बनाते। वहां बौद्ध धर्म की आलोचना करने का अवसर नहीं है। लेकिन लगता है कि धार्मिक बुद्ध के इस हौदे में बाबा साहब ठीक से बैठ नहीं प्राये बौद्ध धर्म से कुछ लेने के बजाव उन्हें उसे देना कुछ ज्यादा पड़ गया। बौद्ध धर्म दलितों को क्या दे सकता था?
बौद्ध धर्म से वर्णव्यवस्था, जातिप्रथा और अस्पृश्वता का भी गृहस्थ जीवन में खण्डन नहीं हो पाता वह इनका खंडन केवल भिक्षुओं में कर पाता है। यहां कबौर का चिंतन ही कमल की तरह खिलता है कि बहुरि हम काहे आवेगे’ तथा जो तू बाभन ब्राह्मणी जाया, आन बाट काहे नहिं आया ।
व्यक्ति-पूजा के विरोधी
डॉ० अम्बेडकर व्यक्ति-पूजा के विरोधी थे। बी.एल. मेघवाल लिखते हें “डॉ० अम्बेडकर व्यक्ति-पूजा की हानियों से भली प्रकार परिचित थे। उन्होंने व्यक्ति-पूजा की कटु आलोचना की। जिन चिंतकों, विचारकों ने भारतवासियों की व्यक्ति पूजक मानसिकता का तटस्थ विश्लेषण किया है उन सबको व्यक्तिपूजा के भयंकर खतरों के दुष्परिणामों ने बहुत विचलित किया ।” परन्तु डॉ० अम्बेडकर के अनुयायियों द्वारा यह खतरा आज उन्हीं के लिए उपस्थित होता जा रहा है। जिस तरह उनकी मूर्तिस्थापना और उनके नाम पर कथा एवं पूजा शुरू हो गयी हे वह भयावह है।
मृत्यु
डॉ० अम्बेडकर दिल्ली के अपने निवास स्थान में थे। वे अस्वस्थ तो चल रहे थे, परन्तु 5 दिसम्बर 1956 को उनका स्वास्थ्य सामान्य था। श्रीमती सविता अम्बेडकर अतिथि डॉ० मावलंकर के साथ दिन के डेढ़ बजे कुछ खरीदारी के लिए बाजार गयीं, तो पांच बजे के बाद लौटीं। डॉ० अम्बेडकर ने उन पर काफी नाराज होकर उन्हें बहुत भला-बुरा कहा। श्रीमती सविता ने सेवक रत्तू से कहा कि वह मालिक को शांत करे।
जैनों का एक शिष्ट मण्डल मिलने आया था। जब डॉ० अम्बेडकर उनसे बात कर रहे थे तब उनके अतिथि डॉ० मावलंकर रात्रिकालीन उड़ान से बम्बई के लिए प्रस्थान कर गये। रत्तू सेवक डॉ० अम्बेडकर के पांव दबाये तथा सिर में तेल की मालिश की। डॉ० अम्बेडकर मंद स्वर से गुनगुना रहे थे “बुद्ध शरणं गच्छामि””।
अंततः अपने सोने के कमरे में जाते समय कबीर साहेब का एक भजन गुनगुना रहे थे “चल कबीरा तेरा भवसागर डेरा”
रात में श्रीमती सविता तथा रसोइया सुदामा के अलावा कोई नहीं था। अगले दिन 6 दिसम्बर की सुबह श्रीमती सविता अम्बेडकर जब साढ़े 6 बजे उठीं, तो उन्होंने अपने पति को सोते हुए देखा सदा की भांति उन्होंने बगीचे में थोड़ी चहलकदमी की और लौटकर अपने पति को जगाना चाहा तो उन्होंने उन्हें मृत पाया।
“डॉ० अम्बेडकर की असामयिक मृत्यु को लेकर उनके पुत्र श्री यशवंत राव बी० अंबेडकर तथा बाबा साहेब के कई अनुयायियों को शंका थी कि हो सकता है कि उनकी मृत्यु के पीछे कोई साजिश हो। बाबा साहेब के पुत्र श्री यशवंत द्वारा इस सम्बन्ध में दिल्ली पुलिस में प्राथमिकी भी दर्ज करायी गयी थी। बाबा साहेब के दुभाषिये श्री सोहनलाल शास्त्री ने अपने प्रकाशित संस्मरणों में भी ऐसी आशंका व्यक्त की है। इस सम्बन्ध में 26 नवम्बर, 1957 ई० को तत्कालीन गृहमन्त्री पण्डित गोविंद वल्लभ पंत ने लोकसभा में इस आशय का वक्तव्य देकर इस प्रकरण का पटाक्षेप किया कि डॉ० अम्बेडकर की मृत्यु एक स्वाभाविक मृत्यु है ।
उपसंहार
भारत के धार्मिक क्षेत्र में शूद्र कहे जाने वाले वंश में कृष्णद्वेपायन, सौति आदि अगणित महापुरुष हुए हें जो हिन्दू-समाज की रीढ़ में हैं। राजकाज में भी मगध की गद्दी पर नन्दवंश एवं मौर्यवंश भारत के महान शासक हुए जिसने क्रमश: प्रसिद्ध महान सिकंदर का सामना किया और पीछे उसके सरदार सैल्यूकस को परास्तकर उन्हें अधीन किया। मौर्यवंशी महान अशोक की सुकीर्ति कौन नहीं जानता है जो शूद्रवंश के ही माने जाते हैं। छत्रपति शिवाजी भी शूद्रबंश के ही माने जाते हैं जिनके राज्याभिषेक को लेकर ब्राह्मणों ने बहुत खींचातानी की थी। अन्त में करोड़ों रुपयों की दान-दक्षिणा के बाद ब्राह्मणों द्वारा उनका राज्याभिषेक हो सका था। परन्तु इस शूद्र कहे जाने वाले छत्रपति शिवाजी का वर्चस्व जगजाहिर है।
इस बीसवीं सदी में डॉ० भीमराव अंबेडकर भारत के एक ऐसे रत्न हुए जो शूद्र कहे जाने वाले वंश में जन्म लिये थे। उन्होंने भारत और भारत के बाहर तथा दिल्ली से लंदन तक के राजभवनों में विषमता के विरोध में ऐसा हुंकार किया, जिससे भारत के सवर्ण कहे जाने वाले लोगों को पुनर्विचार करने के लिए विवश होना पड़ा। स्वतन्त्र भारत के दलित वर्ग की उन्नति तथा सब क्षेत्रों में अधिकार प्राप्ति में कारण भारतीय कांग्रेस पार्टी, अन्य राजनीतिक पार्टियां, समय आदि हें ही, डॉ० अम्बेडकर का बहुत बड़ा योगदान है।