भारतीय नारी की सामाजिक स्थिति (Social Status of Indian Woman in Hindi)
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सामाजिक दृष्टि से उच्च पद
भारतीय नारी वैदिक काल से सामाजिक दृष्टि से परम उच्च पद पर प्रतिष्ठित है। पंचकन्या रूप में प्रात: स्मरणीया है । समाज उसके वात्सल्यमय आंचल में स्थान पाता है, इसलिए माता के नाते पूज्या है। नि:स्वार्थ समाज-सेवा की सुधा बाँटती ‘ देवी ‘ है। त्याग के बल पर समाज की “सम्राज्ञी’ है। सत्य-आनन्द की स्नोतस्विनी के नाते वह समाज की ‘मोहिनी‘ है।
भारतीय नारी सदा सामाजिक संस्था बनकर दीप्त रही है। सहस्र दल कमल दिखती है वह। रस लेती रहती है अपने मायके से वाणी की तरह और लक्ष्मी की तरह लहराती रहती है अपने ससुराल में । किसी की ननद है, किसी की भाभी, किसी की जेठानी, किसी की देवरानी, किसी की चाची, मौसी, दीदी, बुआ। इन सहस्र सम्बन्धों में एक होकरे वह पूर्ण प्रस्कुटित कमल बनती है। तभी उसके भीतर पराग भरता है।
जीवन के विकास की प्रतीक
भारतीय नारी एक ओर प्राकृतिक सृजन शक्तियों के उदार मानवीकरण के नाते जीवन के विकास की प्रतीक बनी। दूसरी ओर, सामाजिक सदस्य के रूप में सर्वाधिकार प्राप्त प्रतिष्ठित पद पर आसीन हुई | अदिति मानव-मुक्तिदात्री मानी गई । सरस्वती ज्ञान का, इडा मेघा का, पृथ्वी मातृशक्ति का प्रतीक बनीं ।
ब्रह्मवादिनी मैत्रेयी का तत्त्व मंत्र आज भी समाज का प्रकाश स्तम्भ है, “असतो मा सद्गमय | तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्माअमृतंगमय ।” गार्गी, सुत्रमा, घोषा, अपाला, लोपा मुद्रा, विश्ववारा, श्रद्धा (कामायनी) अम्मृण ऋषि की कन्या वाक मत्र-द्रष्य प्रतिष्ठित हुईं। महासरस्वती, महालक्ष्मी, महा-काली में विविध शक्तियों का सामंजस्य हुआ।
साक्षात् यमराज से अपने पति को छुड़ाने वाली सावित्री, पतिब्रता रूप में प्रतिष्ठित हुई तो शंकराचार्य से शास्त्रार्थ में पराजित मंडन मिश्र की पत्नी (जो दोनों के शास्त्रार्थ में मध्यस्थ थी) देवी भारती श्रृंगेरी और द्वारिका मठों में अध्यापक पद पर प्रतिष्ठित हुईं।
भारतीय नारी की सामाजिक स्थिति: गृहस्वामिनी रूप
भारतीय नारी का दूसरा रूप है गृह-स्वामिनी का । पति में प्रभु की मूर्ति प्रतिष्ठित करके वह अपने सर्वस्व का समर्पण कर देती है और आत्मसमर्पण इतना पूर्ण, इतना गंभोर, इतना व्यवस्थित कि कोई परिस्थिति, कोई संकट, कोई विपद् उसको स्वात्मस्थिति से च्युत करने में समर्थ नहीं हुई। परिणामत: वह पति गृह को सम्राज्ञी बनी और सभी कार्यों की सहयोगिनी। धर्मकार्यों में सहरधर्मिणी तथा पारिवारिक सम्पत्ति में सह अधिकारिणी बनी।
जब-जब समाज में यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता ‘ के नारी-सम्मान को चुनौती मिली तो साध्वी पत्नी को अग्नि-परीक्षा देनी पड़ी, सभी भाइयों की भोग्या बनना पड़ा, ध्रूत क्रीडा में धन सम्पत्ति के समान दाँव पर लगना पड़ा।
भारतीय नारी की सामाजिक स्थिति: प्राचीन काल में
संदेह मात्र से अग्नि-ज्वाला में झुलसी, देवताओं के मनोरंजन के लिए देवदासी बनीं और पुरुष के मनोरंजन के लिए गणिका। सीता और द्रौपदी पत्नी होने के कारण कप्ट सहने को बाध्य थीं तो राधा-पत्नी न होने के कारण। बौद्धकालीन नारी की स्थिति इतनी दयनीय थी कि भगवान् बुद्ध को नारियों के उद्धार के लिए ‘भिक्षुणी‘ बनने की स्वीकृति देनी पड़ी।
भारतीय नारी की सामाजिक स्थिति: मुग़ल काल में
मुगलकाल में भारतीय नारी हीनदशा को प्राप्त हुई । उसमें एक ओर नारी मात्र भोग्या थी तो दूसरी ओर, बाल-विवाह की विवशता और घर की चारदीवारी में सूर्य-दर्शन को तरसती नारी घूँघटी गुड़िया बन कर रह गई । विवश, भयाक्रांत, आहत नारी की मर्मव्यथा अकथनीय है।
भारतीय नारी की सामाजिक स्थिति: आधुनिक काल में
आधुनिक युग में विशेषकर स्वतंत्रता के पश्चात् राजनीतिक परिस्थिति और वैधानिक दृष्टि से भारत की नारी अधिक अधिकार सम्पन्न हुई, समाज में प्रतिष्ठित हुई। आज वह केवल पतली, माता आदि सम्बन्धों के द्वारा ही अपना परिचय नहीं देती, अपितु अपने आपको राष्ट्र या समाज के उत्तरदायी नागरिक के रूप में प्रस्तुत करती है।
अर्थ का अभाव, स्वावलम्बन की इच्छा तथा कुछ कर दिखाने की लालसा ने नारी को नगरों में घर से बाहर तो निकाला, किन्तु उसकी स्थिति शंका से देखी गई। दिन-भर श्रम से जुटी नारी को घर में विश्राम और शांति चाहिए । वह स्थिति संगत नहीं बैठती । नौकरी और सामाजिक क्षेत्र में उसकी श्रृंगार-प्रियता तथा स्वतंत्रता में उच्छृंखलता का भ्रम हो जाना सहज है।
परिणामत: परिवार सम्बन्धों में संघर्ष और कटुता उत्पन्न हुई। “स्व ‘ के भविष्य-चिंतन ने संतति के भविष्य पर प्रश्न-चिह् लगा दिया। नारी के सृजन-स्वभाव, स्नेह और सहानुभूति से बनी गृहस्थी जल उठी।
भारतीय नारी की सामाजिक स्थिति: उपसंहार
आज भी नारी सामान्य समाज में विशेषत: ग्रामों में और शहर की झोपड़ियों में दूसरे दरजे की नागरिक है। शोषित है, पीड़ित है, अर्थ की दृष्टि से पुरुष की बंदनी है। पुरातन संस्कारों से बद्धमूल है |निरर्थक आस्थाओं तथा व्यर्थ की परम्पराओं से भ्रमित है।
दहेज प्रथा’ विरोधी कानूनों के रहते भी योग्य पति पाने से वंचित है। इसलिए आज भी ‘कन्या’ का जन्म विपत्ति का आरम्भ माना जाता है। इतना होने पर भी आज भारतीय नारी सभी क्षेत्रों में आगे बढ़ रही है।
महादेवी वर्मा के शब्दों में, ‘ भारत की सामान्य नारी शिक्षित न होकर भी संस्कृत है। ‘जीवन-मूल्यों से उसका परिचय अक्षरों द्वारा न होकर अनुभवों द्वारा हुआ है । अत: उसका संस्कार समय के साथ गहरा होता गया।
परिणामतः आज भी नीति, धर्म, दर्शन, आचार, कर्तव्य आदि का एक सहज-बोध रखने के कारण भारत की अशिक्षित नारी, शिक्षित नारी की अपेक्षा धरती के अधिक निकट और जीवन-संग्राम में ठहरने के लिए अधिक समर्थ है।
दूसरी ओर, “युगों से पीड़ित रहने के कारण जो हीनता के संस्कार भारतीय नारी में बन गए थे, उन्हें आधुनिक भारतीय नारी ने अपने रक्त और प्रस्वेद से इस प्रकार धो दिया है कि आगामी युग की नारी को उस पर कोई रंग नहीं चढ़ाना पड़ेगा। अपने स्वरूप के लिए समाज से याचना करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
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