आर्थिक स्वतंत्रता और नारी

आर्थिक स्वतंत्रता और नारी | Essay on Economic Freedom and Women

आर्थिक स्वतंत्रता और नारी ( Essay on Economic Freedom and Women)

आज आर्थिक स्वतन्त्रता के अभाव में नारी पूर्णतः परवश है, प्रेरणा-शून्य है, स्फूर्तिमयी स्वतन्त्रता से वंचित है। अपने सामाजिक व्यक्तित्व की रक्षा करने में असमर्थ है। अत: उसका जीवन अभिशाप- ग्रस्त है।

आर्थिक स्वतंत्रता और नारी:अर्थ ही जीवनाधार

आज के भौतिकता-प्रधान युग में अर्थ ही जीवनाधार है। अर्थ के बिना उदर-पूर्ति सम्भव नहीं और न अर्थ के बिना वस्त्रों से शरीर ढका जा सकता है। भूखा पेट नारी को पाप के लिए प्रेरित करता है। वह सम्बन्धियों के यहाँ दर-दर भटकती है, कभी-कभी पर-पुरुष से सम्बन्ध जोड़ती है या अपमानित होकर वासना के बाजार में अपने को बेचती है।

आर्थिक स्वतंत्रता और नारी
आर्थिक स्वतंत्रता और नारी

भारतीय समाज में नर और नारी के कर्तव्य विभाजित हैं । द्रव्योपार्जन नर का कर्तव्य है। उपार्जित धन से गृह-संचालन नारी का दायित्व है। अत: वह उपार्जित धन की न्यासी (ट्रस्टी) है, न कि अधिकारिणी | अधिकार के अभाव में वह धन का उपयोग अपनी सामान्य इच्छाओं की पूर्ति में भी नहीं कर पाती । जहाँ उसने पुरुष द्वारा उपार्जित धन पर अधिकार समझा, वहाँ घर में कलह, द्वन्द और उत्पीड़न उपस्थित हो जाते हैं। घर की सुख-शान्ति काफूर हो जाती है।

आर्थिक स्वतंत्रता और नारी: नारी, पुरुष पर आश्रित

नर, नारी पर अत्याचार-अनाचार इसलिए करता है, क्योंकि नारी जीवन की सभी सुख-सुविधाओं के लिए पुरुष पर आश्रित है। वह उसे भोग-विलास की सामग्री तथा घर की बंधक दासी के अतिरिक्त कुछ नहीं समझता। नारी की स्थिति अन्य स्थावर सम्पत्ति से अधिक कुछ नहीं।

पुरुष बात-बात में उसे झिड़केगा, फटकारेगा, क्रोध प्रकट करेगा,आँखें दिखाएगा, मारेगा, पीटेगा, शारीरिक यातना देगा, मानसिक कष्ट पहुँचाएगा और नारी,“एक धरम एक व्रत नेमा; करम, वचन, मन, पति यद ग्रेमा” का आदर्श प्रस्तुत करते हुए सब सहेगी। कारण, वह जानती है कि घर की लक्ष्मण-रेखा पार करते ही उस पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ेगा। इसका मूल कारण अर्थ-परतन्त्रता ही है।

पुरुष ने नारी को प्रसन्‍न रखने के लिए उसे अनेक सुन्दर विशेषणों से अलंकृत किया। संतति की जन्मदात्री होने के कारण “जननी” का पवित्र पद दिया। धर्म-कार्यों में उसका साथ अनिवार्य करके उसे ‘ सहधर्मिणी ‘ का पद प्रदान किया । गृह की व्यवस्थापिका बनाकर *गृहलक्ष्मी ‘ बनाया। ‘ यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता: ‘ का सिद्धान्त-वाक्य बनाकर “नारी तुम केवल श्रद्धा हो” का गीत गाया, किन्तु धन के क्षेत्र में उसे परतन्त्र ही रखा। धन-सम्पदा की चाबी देकर भी उसे तिजोरी को हाथ न लगाने की हिदायत कर दी। कारण,पुरुष भयभीत रहता है कि उस गृह-लक्ष्मी के हाथ लगते ही चंचल लक्ष्मी कहीं सच्चे अर्थो में गृह-लक्ष्मी न बन बैठे।

आर्थिक स्वतंत्रता और नारी: विद्वानों के अनुसार नारी के गुण

विद्वानों ने नारी के अलंकरण के लिए नवीन शब्द खोजे । उसे “सहयात्री ‘ की पदवी प्रदान की ।’ सहयात्री ‘ शब्द पर आपत्ति प्रकट करती हुई परम विदुषी और कवयित्री महादेवी जी कह उठीं,

“सहयात्री वे कहे जाते हैं, जो साथ चलते हैं, कोई अपने बोझ को सहयात्री कहकर अपना उपहास नहीं करा सकता। भारतीय पुरुष ने स्त्री को या तो सुख के साधन के रूप में पाया या भार रूप में, फलत: वह उसे सहयोगी का आदर न दे सका। उन दोनों का आदान-प्रदान सामाजिक प्राणियों के स्वेच्छा से स्वीकृत सहयोगी की गरिमा न पा सका, क्योंकि एक ओर नितान्त परवशता और दूसरी ओर स्वच्छन्द आत्म-निर्भरता थी।”

महादेवी वर्मा

शास्त्रों में नारी के छह गुणों की चर्चा है-(1) कार्येषु मन्त्री (काम-काज में मन्त्री के समान सलाह वाली), (2) करणेषु दासी (सेवादि में दासी के समान सेवा करने वाली), (3) भोज्येषु माता (माता के समान सुस्वादु भोजन कराने कली), (4).रमणेषु रम्भा (शयन के समय रम्भा के समान सुख देने वाली), (5) धर्मानुकूला (धर्म के अनुकूल), (6) क्षमया-धारित्री (क्षमादिगुण धारण करने में पृथ्वी के समान स्थिर रहने वाली)

किन्तु कहीं यह नहीं लिखा देखा कि वह ‘ अर्थ-अधिकारिणी ‘ भी है ।कारण, अर्थ का अधिकार नारी के हाथ में आ जाए, तो वह नर की असंगत बातों को क्‍यों सहेगी ? उसके अत्याचारों को क्यों स्वीकार करेगी ?

आर्थिक स्वतंत्रता और नारी: नारी ने आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त की

नारी ने आर्थिक स्वतन्त्रता के द्वारा खटखटाए। अर्थोपार्जन के लिए सम्भव साधनों की तलाश की। अपनी योग्यता का विकास किया। चेतना शक्ति को ज़ागृत किया। कार्य के अनुरूप अपने को ढाला। वह शक्ति, साहस और सहिष्णुता की त्रिवेणी बनी। उसने घर की चार दीवारी को लाँघा। पुरुष के वासना लोलुप चक्षुओं का निडरता से सामना किया।

आर्थिक रूप से स्वतन्त्र नारी ने स्वाभिमानपूर्ण जीवन की ओर पग बढ़ाया। नारी पर होने वाले अत्याचार, पाशविक वृत्ति तथा कुबचनों पर प्रतिबन्ध लगा। पुरुष नारी को वास्तविक संगिनी समझने पर विवश हुआ। नारी सच्चे अर्थों में गृहलक्ष्मी बनी। दैनन्दिन जीवन में पुरुष को सलाह देने लगी । उसने पुरुष को स्वास्थ्यानुकूल पौष्टिक भोजन दिया। वासना में रमण का भरपूर आनन्द दिया तो वंश-वर्द्धन भी किया। संतान का पालन-पोषण तथा गृह-संचालन में आदर्श प्रस्तुत किया।

आर्थिक रूप से स्वतन्त्र नारी ने नर का सीमातीत दुर्व्यवहार पसन्द नहीं किया। उसने तलाक लेकर स्वतन्त्र, स्वाभिमानपूर्ण जीवन जिया। पति की अकाल-मृत्यु पर दर-दर की ठोकरें नहीं खाईं, घर-गृहस्थी की गाड़ी को डगमगाने नहीं दिया। वृद्धावस्था के दुःखद दिनों में पेंशन, ग्रेच्युटी, प्रांविडेंट फंड, सुरक्षित निधि ने उसको पुत्रों के सामने गिड़गिड़ाने से बचाया। जीवन के निराशात्मक क्षणों और विवशतापूर्ण परिस्थितियों में भी गौरव-पूर्ण जीवन जीने के लिए मार्ग प्रशस्त किया।

आर्थिक स्वतंत्रता और नारी: उपसंहार

जब मायावी संसार में माया अर्थात्‌ अर्थ ही जीवनाधार हो, उसकी शक्ति अपरिमित हो, “सर्वे गुणा: काञ्चनमाश्रयन्ति ‘ के अनुसार संसार के सभी गुणों का वास कंचन अर्थात्‌ अर्थ में हो, माया सारे पापों पर परदा डालती हो, भय-मुक्ति की कुंजी हो, जब जीवन में ‘ धनाद्‌ धर्मस्तत: सुखम्‌’ अर्थात्‌ धन से धर्म होता है, उससे सुख की प्राप्ति होती हो, तब नारी की आर्थिक स्वतन्त्रता जीवन के पूर्ण विकास के लिए अनिवार्य है । इसी में परिवार,समाज, राष्ट्र तथा विश्व का मंगल निहित है।


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