सन्तान के प्रति माता-पिता की भूमिका (Essay on Role of Parents towards Child in Hindi)
पाश्चात्य प्रभाव से भौतिकवादी दृष्टिकोण
आज भारतीय जीवन में पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से भौतिकतावादी बुद्धिप्रधान दृष्टिकोण व्याप्त हो गया है। इससे समाज का सारा परिवेश बदल गया है। इस बदलते परिवेश ने संतान के प्रति माता-पिता की पूर्व भूमिका को नकार दिया है । सन्तान में बढ़ते ‘अहम्’ या ‘ईगो’ ने माता-पिता की भावनाओं को आहत किया है। सन्तान के मन में विद्रोहात्मक भावना पनप रही है, जिसने माता-पिता के प्रति संतानों को विद्रोह का ध्वज ‘फहराने के लिए प्रेरित किया है । धार्मिक क्षेत्र में भी संदान की भूमिका माता-पिता के प्रति हास्यास्पद बन गई है।
विश्वप्रसिध दार्शनिक खलील जिब्रान ने सत्य कहा है,
‘ तुम्हारे बालक अपने नहीं हैं।वे जीवन की जन्म लेने की लालसा को सन्तानें हैं । वे तुम्हारे साथ हैं, फिर भी वे तुम्हारे नहीं हैं!”
खलील जिब्रान
संतान के प्रति माता-पिता की भूमिका
संतान माता-पिता की आत्मज हैं, अत: वे उनकी प्रतिमूर्ति हैं। माता-पिता अपार कष्ट, वेदना, मुसीबत सहकर भी उसका पालन-पोषण करते हैं ।शिक्षा-दीक्षा देकर उसको ज्ञान-ज्योति से ज्योतित करते हैं । विवाह करवा कर उनको परिवार-संस्था का सदस्य बनाते हैं ।पुत्र-वधू को गृहस्थ धर्म को दीक्षा देते हैं । वंश-वर्द्धन पर संतति-पालन का गुर सिखाते हैं। अपने अनुभवों से सन्तान को सांसारिक बाधाओं को हरते हैं।
माता-पिता की सन्तान के प्रति इस भूमिका में संतान-हित का भाव सर्वोपरि रहता है, बुढ़ापे के सहारे की आकांक्षा परोक्ष रूप में या गौण रहती हैं। इसलिए वे सन्तान से प्या: करते हैं तो उसे डाँट, फटकार और दण्ड देना अपना अधिकार समझते हैं। वे संतान के बुरे कार्यों की भर्त्सना करते हैं और अच्छे कार्यों की सराहना से उसका उत्साह बढ़ाते हैं। वे सन्तान के अभिशापों को झेलते हैं और बरदानों से आनन्दित होते हैं।
सन्तान के प्रति इसी भूमिका-निर्वाह ने माता-पिता में देवत्व के भाव उत्पन्न किए। सन्तान-की दृष्टि में वे “मातृदेव” या ‘पितृदेव ‘ बने। पुत्र माता-पिता की मृत्यु के अनन्तर नरकगामी होने से बचाने वाला बना तो पुत्री ने उन्हें महादान का (कन्यादान का) भागी बनाया।
समग्र परिवर्तनशील है। वह अपने बदलते क्षणों में जीवन के परिवेश, मूल्यों और मान्यताओं को. बदलता जाता है। समय के प्रवाह में परिवेश, मृल्यों, मान्यताओं को बदलना जड़ता के प्रति दुगग्रह, मूर्खता और मृत्यु की पृष्ठभूमि तैयार करना है।
समय की करवट और पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति की चकाचौंध ने भारतवासियों ‘को लालायित किया। वे अपनी सन्तान को पाश्चात्य-सभ्यता से ओत-प्रोत देखना चाहने लगे। गरीब से गरीब माँ-बाप भी शिशु को लेकर तथाकथित ‘ पब्लिक स्कूलों ‘ के द्वार पर दस्तक देने लगे।
भारतीय संस्कार और मूल्यों में गिरावट( संतान के प्रति माता-पिता की भूमिका )
इस पाश्चात्य सभ्यता के अन्धानुकरण ने भारतीय संस्कार और मूल्यों को नकारना शुरू किया। सन्तान को माता-पिता के रहन-सहन के तौर-तरीकों में बदबू आने लगी। सोचने-विचारने को विधि में पिछड़ेपन के दर्शन होने लगे । उनके सुझाव, सम्मति-सलाह के लिए विचार करने में समय की बरबादी दिखाई देने लगी। परम्परागत पारिवारिक मूल्य और संस्कार हथकड़ी-बेड़ी लगने लगे।
व्यक्ति के अहं ने जीवन में डेरा डाला। अहं पर चोट ने प्रचंड पावक का रूप धारण किया। घर में अशांति हुई। अशान्ति ने जीवन को नरकीय बनाया। इस नारकीय जीवन से मुक्ति के लिए माता-पिता को सन्तान के अहं को समझना होगा। उसके अहं को ठेस न लगे, इससे बचना होगा।
आज के परिवेश में डाँट-डपट, क्रोध- आक्रोश, अपशब्द, धौंस, जबरदस्ती के पुराने तौर-तरीकों को बदलना होगा। आदेश देने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना होगा । वाद-विवाद की स्थिति से बचना होगा। विचार-परिवर्तन के लिए विवेक से काम लेना होगा। सन्तान को स्वतंत्र चिंतन, कार्य-पद्धति तथा व्यवहार की छूट देनी होगी । विचारों में समन्वय करना होगा। प्रसाद जी ने मानो माता-पिता को यही सन्देश देते हुए कहा है-
आँसू के भीगे अंचल पर, मन का सब कुछ रखना होगा।
प्रसाद जी
हमको अपनी स्थित रेखा से, यह संधि-पत्र लिंखना होगा ॥
व्यक्ति में अहंवादी प्रकृति( संतान के प्रति माता-पिता की भूमिका )
पाश्चात्य सभ्यता ‘ मैं” की उपासिका है, पारिवारिक जीवन की शत्रु है। वहाँ व्यक्ति का ही मूल्य है, परिवार का कोई अस्तित्व नहीं। वहाँ “मैं” और “मेरा’ के चिन्तन में ही सम्पूर्ण दर्शन समाहित है। ऐसी स्थिति में विवाहोपरांत सन्तान से सुख की कामना करना व्यर्थ है। उन्हें अपनी मौज-मस्ती, गृहस्थी के प्रति दायित्व, जीवन जीने की शैली उनके ढंग से चलाने देनी होगी।
माता-पिता ने जीवन की दौड़ में दौड़कर अनुभव के रत्न प्राप्त किए हैं। आज की सन्तान उन अनुभव रूपी रत्नों से लाभ उठाना नहीं चाहती, तो आप उन पर अपनी अनुभूति को लादिए नहीं । उन्हें अनुभव-प्राप्ति के लिए मूल्य चुकाने दीजिए, कष्ट सहने द्रीजिए। उनकी आँखें स्वत: खुल जाएंगी। कबीर ने इसलिए कहा है–
है आतम अनुभव ज्ञान की, जो कोई पूछे बात।
कबीर दास
सो यूँया गुड़ खाई के, कहे कौन मुख स्वाद॥
संतान के प्रति माता-पिता की भूमिका -उपसंहार
संतान की इच्छाओं-आकांक्षाओं का स्वागत करना होगा। उसके व्यवहार के सम्मुख नत-मस्तक होना होगा, जिस ओर उनके आचरण की हवा बहे, उस ओर मुँह करके खड़ा होना होगा। विवेक से काम लेना होगा। हर पस्थिति में सहयोग और समझौते को अपनाना होगा। अकबर इलाहाबादी के परामर्श को स्वीकार करना होगा–
मुनासिब यही दिलहै पर, जो कुछ गुजरे उसे सहना। न कुछ किस्सा, न कुछ झगड़ा, न कुछ कहना, न कुछ सुनना ॥
अकबर इलाहाबादी
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