लड़का लड़की एक समान निबंध-Essay on Gender Equality in Hindi
लड़का लड़की एक समान -सूक्ति का अर्थ
जनसंख्या वृद्धि को अवरुद्ध करने का यह एक नारा है ” लड़का लड़की एक समान ‘ अथवा जिन दम्पतियों के यहाँ केवल लड़कियाँ ही जन्म लेती हैं, उनको धैर्य तथा सांत्वना देने का यह एक घोष भी है। जो परिवार लिंग-भिन्नता के कारण अपनी संतानों में भेद-भाव बरतते हैं, अर्थात् लड़की की अपेक्षा लड़के को अधिक महत्त्व देते हैं, उनके लिए एक उपदेश-वाक्य है।
लड़के के जन्म पर परिवार में खूब-खुशियाँ मनाई जाती हैं और लड़की के जन्म पर अवसाद-सा छा जाता है । विष्णु शर्मा ने ‘ पंचतंत्र‘ में ‘ पुत्रीति जाता महतीति चिन्ता ‘ कहकर मन खराब किया तो कवि उस्मान का हृदय ‘चित्रावली ‘ में रो उठा, जब ते दुहिता ऊपनी, सतत हिए उतपात। ‘लड़का परिवार का दुलारा कहलाता है, पुत्री पराया धन है।
महाकवि कालिदास ने ‘ अर्थो हि कन्या परकीय एव’ कहकर इसी बात का समर्थन किया है । लड़का मस्तिष्क प्रधान होता है, लड़की हृदय प्रधान। लड़का पितृऋण से उऋण होने का साधन है तो लड़की परिवार को ऋणी बनाती है। लड़का जन्मत: स्वतंत्र है और लड़की परतंत्र।
इसलिए लड़का सबल है, लड़की अबला है। लड़का कमा कर लाएगा, इसलिए घर की सम्पन्तता का सूचक है और लड़की घर से बहुत कुछ लेकर जाएगी, इसलिए विपन्नता का कारण है, तब लड़का-लड़की एक समान कैसे ?
लड़का-लड़की में भेदभाव प्रकृति-जन्म – लड़का लड़की एक समान
लड़का-लड़की में असमानता प्रकृति-जन्य है, उसको अनदेखी कर, मानवीय दृष्टि से समान समझना, यह मनुष्य का धर्म है। सामाजिक और राष्ट्रीय उन्नति का अनिवार्य कर्म है।समानता के धर्म और कर्म के अभाव में सामाजिक और कौटुम्बिक जीवन विपाक्त होगा। सच्चे धर्म का हास होगा।
माता-पिता की विकृत मानसिकता- लड़का लड़की एक समान
लड़के को उच्च, उच्चतर शिक्षा देने का मन बनाना और लड़की की माध्यामिक, उच्च माध्यमिक शिक्षा तक को बहुत समझना विपमता का प्रथम चरण है। इसका कारण है-माता-पिता की यह सोच कि लड़की ने तो चूल्हा ही फूँकना है, नौकरी थोड़ी करनी .है। मानो नौकरी करना ही जीवन का अंतिम लक्ष्य हो।
परिणामत: लड़की अर्ध-शिक्षित रह जाती हैं । गाँवों में तो आज भी बहुत-सी कन्याएं पाठशाला नहीं जा पाती । फलत: उनके मन, मस्तिष्क तथा चारित्रिक गुणों का विकास नहीं हो पाता। परिणामत: उनमें शुरू से ही आत्महीनता की ग्रन्थि विकसित हो जाती है और वे समाज-विकास में सहायक नहीं हो पातीं।
लड़के और लडकी को व्यावहारिक शिक्षा देने में अंतर करना, माता-पिता की मानसिक विषमता है। लड़के को लड़की की अपेक्षा खान-पान-परिधान में अधिक और श्रेष्ठ सामग्री देना; लड़के-लड़की की लड़ाई में लड़की को डाँटना, झिड़कना;घर के काम-काज में लड़की को ही अधिक रगड़ना; समय-असमय लड़की में हीनता की भावना को दर्शाना विषमता के परिचायक हैं।
लड़की के जोर से बोलने, ठहाके मार कर हँसने,समवयस्क बालक-बालिकाओं से अधिक मेल मिलाप को लोक-व्यवहार्-विरुद्ध करार दिया जाता है। जबकि लड़के इस प्रकार के व्यवहार के लिए स्वच्छंद रहते हैं। इस विषमतापूर्ण व्यवहार का परिणाम यह होता है कि लड़कियों में शुरू से ही आत्महीनता का भाव पैदा हो जाता है। आत्महीनता का भाव अंधकारमय-जीवन का मार्ग खोलता है।
लड़की को बोझ समझना- लड़का लड़की एक समान
अभिभावकों की मानसिक विषमता का एक बड़ा कारण है, लड़की को ‘बोझ’ समझना। “बोझ ‘ इसलिए कि विवाह के अवसर पर लड़की कुछ लेकर जाएगी। उसके लिए अच्छे घर और वर की तलाश में मारे-मारे फिरना पड़ेगा ।
लोगों की बातें और रिश्तेदारों के व्यंग्य सुनने पड़ेंगे। ससुराल वालों के नखरे सहने पड़ेंगे। लड़की कब सयानी होगी,कब विवाह-योग्य होगी, परन्तु उसका भूत माता-पिता के मन को उसके जन्म समय सेही सताता रहता है। इसी बोझ को हल्का करने के चक्कर में लड़के की अपेक्षा लड़की के विवाह को प्राथमिकता देते हैं ।
बोझ को हल्का करने में पक्षपातपूर्ण व्यवहार असंगत है।कारण, नियति समय पर सब काम स्वतः करवा देती है । और समय पर चिंतन विजयश्री का द्वार खटखटाता है । फिर बोझ तो पुत्र वधू को देखने में भी है पुत्र-वधू की मानसिकता समझने में है, उसके साथ ठीक व्यवस्थित होने (एडजेस्टमेंट) का भय है । बोझ तो बोझ ही है, फिर उसके कारण विषमता क्यों ?
महिलाएँ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में- लड़का लड़की एक समान
आज सहस्रों नहीं, लाखों लड़कियाँ, किशोरियाँ, युवतियाँ तथा नारियाँ राष्ट्रटजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अध्यापन से लेकर मेडीकल सेवा तक में, पुलिस से लेकर सेना तक में,कार ड्राइवर से लेकर हवाई उड़ान तक में, जासूसी से लेकर मनोरंजन तक में, धर्म से लेकर राजनीति तक में, समाज-सुधार से लेकर न्यायालयों में कार्यरत हैं।
अपनी योग्यता, दक्षता तथा चातुर्य से वे भारत की संघीय व्यवस्था को सुचारु संचालन देने में जुटी हैं ।घर-गृहस्थी की आर्थिक दशा सँवारने में योग दे रही हैं। सबसे अधिक वे लड़के-लड़की की समानता की पक्षधर बन उनका भविष्य उज्ज्वल बनाने में लगी हैं।
‘बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी‘, वाली वीरांगना लक्ष्मीबाई, अँग्रेजी काव्य की रचयित्री सरोजिनी नायडू, हिन्दी की महाकवयित्री महादेवी वर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान; विपक्ष और विदेशों को ललकारने वाली इन्दिरा गाँधी, क्रींडा के मैदान में प्रतिस्पर्धी को धूल चटाने वाली उड़नपरी पी.टी. उषा, पुलिस में शौर्य की प्रतीक किरण बेदी, कला के क्षितिज को छूनेवाली मीनाकुमारी, बैजयन्ती माला, वहीदा रहमान यदि विषमता के वातावरण में पली होतीं, उन्हें आगे बढ़ने का सु-अवसर नहीं मिला होता तो
क्या वे भारत के इतिहास में अपना नाम अंकित करा पाती ? कदापि नहीं वे प्रेमचंद के “निर्मला’ उपन्यास की नायिका निर्मला के समान घुट-घुट कर मर जातीं।
उपसंहार- लड़का लड़की एक समान
आज भारत राष्ट्र सभी क्षेत्रों में अपने देशवासियों के विकास का आह्वान कर रहा है। विकास के लिए चाहिएँ बुद्धिमान, पराक्रमवान् तथा आकांक्षावान् नर-नारी। ये नर-नारी तभी आगे आएंगे, जब लड़कपन में उनके गुण, महत्त्व और मूल्यों को समान समझा जाएगा। उन्हें आगे बढ़ने का समान अवसर दिया जाएगा। यह तभी सम्भव है जब परिवारों में यह समझ उपजेगी कि
लड़का लड़की एक समान, इसी भाव से बनेगा देश महान्
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