पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं

पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं- निबंध

पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं-निबंध

रामचरितमानस में शिव-पार्वती के विवाह का प्रसंग है । पार्वती को विदा करते समय माता मेना जी ने पहले तो पार्वती को शिक्षा दी, फिर वचन कहते-कहते उनके नेत्रों में जल भर आया। कन्या को छाती से लगाते हुए बोलीं, ‘कत बिधि सृजीं नारि जय माहिं। पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं । क्योंकि उन्हें लगा कि अब पार्वती को पति के अधीन रहना होगा।

पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं ‘ के पूर्व जब तुलसी ने “ कत बिधि सृजीं नारि जय माहिं जोड़ा, तो लगता है संतान-हीन तुलसी भी उमा की विदाई पर रो पड़े । स्त्री तो सदा पराधीन रहती ही है। “पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने। वार्द्धक्ये तु सुतो रक्षेत्‌, न स्त्री स्वातन्त्र्यमहर्ति ।’ मनुजी कहते हैं– कन्या बालपन में माता-पिता के अधीन है, वे जहाँ चाहें विवाह करें। युवती हुई, विवाहोपरान्त पति के अधीन हो गई। बूढ़ी हुई, अधीनता बदल गई। वह पुत्रों के अधीन हो गई | शकुन्तला की बिदाई पर उसके पालनकर्ता पिता महर्षि कण्व भी रो पड़े थे। ‘पता नहीं शकुन्तला को सुख मिलेगा भी या नहीं।

पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं
पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं

पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं -पराधीनता तो विवशता है

पराधीनता तो एक विवशता है। पर मनुष्य इसके बिना मनुष्यता प्राप्त कर ही नहीं सकता। पराधीनता उसका आजन्म पल्‍ला नहीं छोड़ती | इसीलिए जन्म लेते ही शिशु रोता है, पराधीनतामय भावी जीवन जीने के लिए विलाप करता है । उसका शैशव माता के आश्रय में बीता। किशोर हुआ पिता के संरक्षण में रहा। ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरुकी आज्ञा-आदेश का पालन किया। विवाह हुआ तो पत्नी की इच्छाओं पर नाचा | संतान हुई तो उसके पालन-पोषण में खोया। उदरपूर्ति के लिए नौकरी की तो बॉस (वरिष्ठ अधिकारी) की गुलामी झेली। व्यापारी बना तो पद-पद पर गर्व-गौरव ने धोखा दिया। वार्द्धक्य आया तो स्वप्न चूर-चूर हुए। तन की दासता झेली।

इस प्रकार मनुष्य काल की शाश्वत पराधीनता ओढ़े हुए है। वाल्मीकि इस विचार का समर्थन करते हुए लिखते हैं–

नात्मनः कामकारों हि पुरुषोअय मनीश्वरः ।
इतश्चेतरचैनं कृतान्तः. परिकर्षति॥

मनुष्य अपनी इच्छा के अनुसार कुछ नहीं कर सकता। वह पराधीन होने के कारण
असमर्थ है। दैव उसे उधर-उधर खींचता रहता है।

वाल्मीकि

पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं -कामना मानव की शाश्वत साथी

काल की प्रिया है कामना । कामना प्रत्येक मानव की शाश्वत साथी है । योग्य, विद्वान्‌ होने की अभिलाषा, संतान होने पर उसके उज्ज्वल भविष्य की अभिलाषा। धन-संम्पत्ति और वैभव की कामना, लोकेषणा की चाह और अंत में मुक्ति.की इच्छा। सारा जीवन इस कालप्रिया इच्छा के पराधीन है। जब तक कामना है, तब तक सुख के दर्शन स्वण में भी नहीं होंगे। गीता में भगवान्‌ कृष्ण कहते हैं-

विहाय कामान्य: सर्वान्मापुमांशचरति निःस्प्रहः
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधि गच्छाति।।
अर्थात्‌ जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर निःस्पृह हो जाता है, ममता तथा
अहंकार छोड़ देता है, वही शान्ति पाता है।

गीता में भगवान्‌ कृष्ण


वियोगी हरि ने पराधीनजन की परिभाषा करते हुए लिखा है-

पर भाषा, पर भाव, पर भूषण, पर परिधान।
पराधीन, जन की अहै; यह पूरी पहचान ॥

वियोगी हरि


केवल मुगल या ब्रिटिशदासत्व काल के भारत पर ही नहीं आज के स्वतंत्र भारत भी पर यह परिभाषा सटीक ठीक उतरती है।’स्वतंत्र’ होते हुए भी हम परतंत्र हैं, पर-भाषा (अंग्रेजी) के कारण, पर-भाव (पाश्चात्य संस्कृति) के कारण, पर भूषण (विदेश जीवन -मूल्य) के कारण तथा पर-परिधान (विदेशी पहनाना व सभ्यता) के कारण।

विवशता में सुख नहीं

पराधीनता में रहता हुआ व्यक्ति कई बार उसे ही वास्तविक मानता हुआ ‘ पर’ में इतना आसक्त हो जाता है कि ‘स्व’ को भूल जाता है। पिजरे में बंद रहने का अभ्यस्त पक्षी द्वार खुला होने पर कुछ क्षण बाहर रहने का आनन्द तो लेना चाहेगा, पर लौटकर पिंजरे में स्वतः आएगा। पराधीनता का परिसर न छोड़ना उसकी विवशता है ।विवशता में सुख कहाँ, सुखद कल्पनाएँ कहाँ ? आज का भारत सहसरों वर्षों को दासता के कारण ‘स्व” को भूल गया।

“जैसे उड़ि जहाज को पंछी पुनि जहाज पै आवे ‘के अनुसार–लौट-लौट कर विदेशी सभ्यता-संस्कृति और भाषा के ‘पर’ को आत्मसात्‌ कर रहा है।

पंखों की उड़ान में उड़ते पक्षी, पंख फैलाकर नाचते मयूर, घन-घटाओं में उड़ते श्वेत बगुले, चौकड़ी भरते हिरण, मस्ती में झूमते हाथी, निर्भीकता से विचरते सिंह, स्वच्छन्द गति से बहते झरने, उन्माद में उमड़ता उदधि ‘स्व’ में सुख, सौन्दर्य और स्वप्निल जीवन के प्रतीक हैं। स्वाधीन जीवन दिन में सुख और स्वप्न में चैन का स्मरण करवाते हैं।

मानव अपनी प्रकृति के कारण पराधीन

मानव पशु-पक्षी कौ-सी स्वतंत्र चेतना साकार रूप में ग्रहण नहीं कर सकता। करेगा तो वह उसकी उच्छृंखलता होगी। कारण, मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज के नियम विधान से बद्ध है। परिवार, समाज, राष्ट्र के प्रति उसके कुछ दायित्व हैं।उन दायित्वों को निभाने में ही जीवन की सार्थकता है। अधीनता के ‘पर’ में दुःख है, कष्ट है, पीड़ा है, जीवन मूल्यों की अवहेलना है,सुख शांति का तिरोभाव है, भविष्य की सुनहरी कल्पनाओं की अपंगता है ।

जीवन के बोझ की पग-पग की पीड़ा की प्रताड़ना है। यदि इस अधीनता में ‘स्व’ की अनुभूति उपजे तो जीवन में प्रकाश है, प्रगति है, समृद्धि है, यशस्विता है, गौरव है। शिवाजी औरंगजेब की कैद में ‘पर-अधीन’ होते हुए ‘स्व-अधीनता’ का भाव लिए थे। इसी भाव ने उन्हें कैद से मुक्ति दिलाई ।

इन्दिरा जी के आपत्‌काल में पराधीन भारतवासी अन्याय-अत्याचार सहते हुए भी ‘स्व’ से विमुख नहीं हुए। इस “स्व ‘ के तेज से भारत का भाग्य पलटा । आपत्‌काल मिटा, इन्दिरा शासनच्युत हुईं।मानव अपनी प्रकृति के कारण पराधीन है।

परिवार में समाज और राष्ट्र का घटक होने के नाते परवश है। समाज राष्ट्र पर और राष्ट्र समाज पर आश्रित है। विश्व का हर राष्ट्र आज दूसरे राष्ट्र पर आश्रित है। यह पर-आश्रय, परवशता, विवशता ‘सपनेहुँ सुख नाहीं” अगर होती तो जगती जड़ हो जाती। काल की गति अवरुद्ध हो जातो। इस ‘पर’ में कर्म और कर्तव्य का ‘स्व’ छिपा है। संसार को हँसते देखने की मंगल-भावना छिपी है।इसीलिए इस मंगलमय* पर ‘ में जीवन का सत्‌, चित और आनन्द है और ‘स्व’ के अभाव में ‘सपनेहु सुख नाहिं’ की सत्य सार्थकता।


बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपया
नर हो, न निराश करो मन को
निन्दक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय निबंध
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